________________ ने कुल, वंश, व्यक्ति विशेषों की सन्तान परम्परा आदि शब्दों के लिए गोत्र शब्द का प्रयोग किया। लेकिन यहाँ पर इस कर्म के उदय से जीव जाति, कुल की अपेक्षा से पूज्य-अपूज्य कुलीन-अकुलीन कहलाता है। गोत्र कर्म दो प्रकार है / वह इस प्रकारगोयं दुविहं भेयं उच्चागोयं तहेव नीयं च / 222 गोत्र नामकर्म दो प्रकार का है। उच्चगोत्र और नीचगोत्र / 'उत्तराध्ययन'२२३ 'प्रज्ञापना' 224 'कर्मप्रकृति'२२५ 'तत्त्वार्थ' 226 ‘कर्मग्रन्थ' 227 'धर्मसंग्रहणी' 228 में भी दो भेद बताये है। जिस कर्म के उदय से जीव उच्च कुल में जन्म लेता है उसे उच्चगोत्र नामकर्म कहते है। उच्च गोत्र देश, जाति, कुल, स्थान, मान, सम्मान, ऐश्वर्य के उत्कर्ष का कारण होता है।२२९ अथवा जिसके उदय से जीव अज्ञानी एवं विरूप होने पर भी उत्तम कुल के कारण पूजा जाता है उसे उच्चगोत्र नामकर्म कहते है।२३० उच्चगोत्र कर्म के आठ उपभेद है - 1. जाति, 2. कुल, 3. बल, 4. रूप, 5. तप, 6. श्रृंत, 7. लाभ, 8. ऐश्वर्य / 231 जिस कर्म के उदय से जीव नीच कुल में जन्म लेता है उसे नीच गोत्र नामकर्म कहा जाता है। चाण्डाल, मच्छीमार आदि।२३२ अन्तराय - अन्तराय कर्म जीव को लाभ आदि की प्राप्ति में शुभ कार्यों को करने की क्षमता, सामर्थ्य में अवरोध खडा करता है। अन्तराय कर्म अपना प्रभाव दो प्रकार से दिखाता है - 1. प्रत्युत्पन्न विनाशी, 2. पिहित अगमिक पथ।२३३ प्रत्युत्पन्न विनाशी अंतराय कर्म के उदय से प्राप्त वस्तुओं का भी विनाश हो जाता है, और पिहित आगमिक पथ अन्तराय भविष्य में प्राप्त होने वाली वस्तु की प्राप्ति में अवरोधक है। अंतराय कर्म पाँच प्रकार का परमात्मा द्वारा कहा गया है। चरिमं च पंचभेदं पन्नतं वीयरागेहिं। तं दाणलाभभोगोवभोगविरियंतराइयं जाण / 234 1. दानांतराय कर्म, 2. लाभांतराय कर्म, 3. भोगान्तराय कर्म, 4. उपभोगान्तराय कर्म, 5. वीर्यान्तराय कर्म। 'उत्तराध्ययन सूत्र' 235 ‘तत्त्वार्थ सूत्र' 236 तथा प्रथम कर्मग्रन्थ' 237 में भी ये भेद है। दानान्तराय कर्म - जिसके उदय से देने योग्य द्रव्य और ग्रहण करनेवाले विशिष्ट पात्र के रहते हुए भी तथा दान के फल को जानता हुआ भी जीव देने के लिए उत्साहित नहीं होता है। उसे दानान्तराय कर्म कहते है। लाभान्तराय - जिसके उदय से प्रसिद्ध दाता और उसके पास प्राप्त करने योग्य वस्तु के होने पर भी तथा मांगने में निपुण होता हुआ भी प्राणी अभीष्ट वस्तुको प्राप्त नहीं कर पाता है। उसका नाम लाभान्तराय कर्म है। भोगान्तराय कर्म - जिसके उदय से जीव वैभव के होने पर भी तथा विरतिरूप परिणाम के न होते हुए भी | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI पंचम अध्याय | 362