Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ में धन व्यय करे तथा दर्शन समकित ग्रहण करे, 'क' अर्थात् दुष्कर्म का क्षय करे तथा इन्द्रियादिक का संयम करे उसे श्रावक कहते है। ____ आचार्य हरिभद्रसूरि श्रावक धर्मविधि प्रकरण तथा पञ्चाशक में अपनी दार्शनिकता को उजागर करते हुए श्रावक के लक्षण को इस प्रकार कहते है। परलोगहियं सम्मं जो जिणवयणं सुणेइ उवउत्तो। अइतिव्व कम्मविगमा, सुक्कोसो सावगो एत्थ // अत्यंत तीव्र कर्मों के अपगम होने से, परलोक में हितकारी जिनवाणी को जो सम्यक् उपयोग पूर्वक सुनता है वह उत्कृष्ट श्रावक कहलाता है। आचार्य हरिभद्र की स्वयं के मति-मन्थन की यह व्याख्या जो सभी व्याख्याओं से भिन्न है। पञ्चाशक की टीका में इस गाथा पर उन्होंने अपना दार्शनिक चिन्तन प्रस्तुत किया है'परलोयहियं' पद को लेकर श्रावक का लक्षण किया है उसमें 'जो' पद से यह बताया है कि उक्त रीति से जो कोई भी जिनवचन सुनता है वह श्रावक है। जिस प्रकार ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुआ ब्राह्मण कहलाता हे उसी प्रकार 'अमुक' कुल में उत्पन्न श्रावक कहलाता है ऐसा नहीं, किन्तु विशिष्ट क्रिया है / अत: उपरोक्त विधि से जो कोई जिनवचन श्रवण की क्रिया करता है वह श्रावक कहलाता है। तथा 'जिनवचन' शब्द से भी यह सूचित किया है कि जिन के सिवाय दूसरों के वचन प्रामाणिक नहीं होने से उससे मोक्षरूप कार्य सिद्ध नहीं होने से सुनने योग्य नहीं है। __ आगे बढ़कर आचार्य श्री ने यह भी कहा कि जिनवचन परलोक हितकर हीहै इससे जिनवचन सुने ऐसा नहीं पर परलोक हितकर जिनवचन सुने ऐसा कहा। उसके पीछे आशय यह है कि अपेक्षा से ज्योतिषशास्त्र आदि भी परलोकहितकर है तथा जिन के सिवाय अन्य दर्शनकारों के वचन भी परलोक हितकर है लेकिन उनकी इहलोक हितकर मुख्य वृत्ति है तथा परलोक हित परंपरा से है जबकि जिनवचन साक्षात् परलोक हितकर है यह भेद दिखाने के लिए परलोक हितकर जिनवचन सुने ऐसा कहा। __ अति तीव्र कर्मका नाश हुए बिना, दंभरहित और उपयोग पूर्वक जिनवचन नहीं सुन सकता है अत: अति तीव्र कर्मका नाश होने से “ऐसा कहा, यद्यपि किसी अवस्था में अभव्य भी व्यवहार से दंभरहित और उपयोग पूर्वक जिनवचन सुनता है लेकिन उसके अति तीव्र कर्म का नाश न होने से वह उत्कृष्ट श्रावक नहीं कहलाता है तथा ऐसा उत्कृष्ट श्रावक निद्रा-विकथा का त्याग करके अंजलीबद्ध होकर जिनवाणी श्रवण में एकाग्रचित बनकर गुरु के प्रति भक्ति बहुमान पूर्वक जिनवाणी का श्रवण करता है। क्योंकि जिनवाणी श्रवण से उत्तरोत्तर हृदय की निर्मलता स्वच्छता के साथ नवीन नवीन संवेग का प्रादुर्भाव होता है / 43 अन्त: करण की निर्मल परिणति का नाम ही संवेग है। इस संवेग के साथ उक्त जिनवाणी सुनने से ज्ञान के आवरण ज्ञानावरण कर्म का विशिष्ट क्षयोपशम होता है। जिससे श्रोता को तत्त्व-अतत्त्व का भी विवेक जाग्रत होता तथा लोक में जिनवाणी सुनने से प्रादुर्भूत संवेग आदि जिस शाश्वत सुख को उत्पन्न करते है, उसे न तो शरीर उत्पन्न कर सकता है, न कुटुम्बी जन उत्पन्न कर सकता है और न धन सम्पत्ति का समुदाय उत्पन्न कर सकता है। अथवा सम्यग् दृष्टि | आचार्य हरिभद्रसरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIII चतुर्थ अध्याय | 250