Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ . ol अवस्थितता - कितने ही झंझावात, भय या प्रलोभन आये लेकिन अपने गृहीत व्रत से विचलित न बने। - महाव्रतों के गुणों में वृद्धि करने हेतु आचारांग में एक-एक महाव्रत की पाँच भावनाएँ बताई है वह इस प्रकार है। 1. ईर्यासमिति से युक्त होना अर्थात् चलते समय अपने शरीर प्रमाण भूमि को देखते हुए जीव हिंसा से बचते हुए चलना। 2. मन को सम्यक् दिशा में प्रयुक्त करना। मन को पवित्र रखना। 3. भाषा समिति या वचनगुप्ति का पालन करना, निर्दोष भाषा का प्रयोग करना / 4. आदान भण्डमत्त निक्षेपणासमिति-वस्त्र पात्र आदि उपकरण लेने और रखने में सावधानी या विवेक रखना। 5. अवलोकन करके आहार - पानी करना / 229 आचारांग चूर्णिकार ने इन भावनाओं के विषय में कहा है कि आत्मा को उन प्रशस्त भावों से भावित करना भावना है। जैन शिलाजीत के साथ लोहरसायन की भावना दी जाती है, कोद्रव की विष के साथ भावना दी जाती है इसी प्रकार ये भावनाएँ है। ये चारित्र भावनाएँ है। महाव्रतों के गुणों में वृद्धि करने हेतु ये भावनाएँ बताई गई है। इन भावनाओं के कारण प्रथम महाव्रत की शुद्ध आराधना सम्भव होती है।२३० ___तत्त्वार्थसूत्र में अहिंसा महाव्रत की पाँच भावनाओं का क्रम कुछ भिन्न है 1. वचनगुप्ति 2. मनोगुप्ति, 3. इर्यासमिति, 4. आदान निक्षेपणा समिति, 5. आलोकित भक्त पान / 231 'आचारांग' में भावनाओं का स्वरूप दर्शित किया गया है। जबकि ‘पंचवस्तुक' ‘पञ्चाशक' एवं 'धर्मसंग्रहणी' में भावनाओं का स्वरूप नहीं मिलता है। ... लेकिन ‘पञ्चवस्तुक' और पञ्चाशक' में उन महाव्रतों के अतिचारों का उल्लेख मिलता है जबकि आचारांग में अतिचारों का वर्णन नहीं मिलता है। 'धर्मसंग्रहणी' में मात्र महाव्रतों का ही विस्तार से वर्णन मिलता है अतिचारों एवं भावनाओं का नहीं क्योंकि यह एक दार्शनिक ग्रन्थ है अत: आचार्य हरिभद्र सूरि ने इसमें महाव्रतों को दार्शनिक शैली से समझाने का प्रयत्न किया है। जो कि यथायोग्य है। (2) सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं - आचारांग में द्वितीय महाव्रत का उल्लेख इस प्रकार मिलता है - हे भगवान ! मैं द्वितीय महाव्रत स्वीकार करता हूँ। मैं सभी प्रकार से मृषावाद और सदोष वचन का सर्वथा प्रत्याख्यान करता हूँ / इस महाव्रत के पालन के लिए क्रोध से, लोभ से, भय से, या हास्य से न तो स्वयं मृषाभाषा बोलूंगा न ही अन्य व्यक्ति से असत्य भाषण कराऊँगा और जो व्यक्ति असत्य बोलता है उसका अनुमोदन भी नहीं करूँगा। इस प्रकार तीन करण से तथा मन वचन-काया इन तीनों योगो से मृषावाद का सर्वथा [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VA चतुर्थ अध्याय | 285]