________________ कुछ बुरे ऐसे परस्पर विरोधी दोनों प्रकार के फल देनेवाले परिणाम होते हैं। जैसे कि कोई संचित कर्म स्वर्गफल देनेवाला होता है तो कोई संचित कर्म नरक जैसे भयंकर दुःख देनेवाले भी होते है। इसलिए दोनों प्रकार के कर्मों के फलों को भोगना पहले प्रारम्भ होता है, उतने को प्रारब्ध कहते है तथा शेष को संचित। क्रियमाण का अर्थ है जो अभी वर्तमान में हो रहा है। वेदान्त दर्शन में कर्म के प्रारब्ध कार्य एवं अनारब्ध कार्य ये दो भेद किये है।४३ यद्यपि इतर दर्शनों में कर्म विपाक का कुछ न कुछ संकेत अवश्य किया गया है, लेकिन योग और बौद्ध दर्शन में अपेक्षाकृत कुछ विशेष वर्णन देखने को मिलता है तथा उसमें विपाक काल की दृष्टि से भी कुछ भेद गिनाये है। जैसे कि - अच्छा कर्म और बुरा कर्म मानने की दृष्टि से बौद्ध और योग दर्शन में कृष्ण, शुक्ल, कृष्ण शुक्ल और अकृष्ण अशुक्ल ऐसे चार भेद किये है - कर्माशुक्ला कृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम्। योगियों के कर्म अशुक्लाकृष्ण है परन्तु दूसरों के कर्म त्रिविध है। भाष्य में इसका विस्तार से वर्णन . किया है कि यह कर्म जाति चार प्रकार की है - (1) कृष्ण (2) शुक्ल (3) शुक्ल कृष्ण (4) अशुक्लाकृष्ण। इनमें दुरात्माओं का कर्म कृष्ण है / कृष्ण-शुक्ल कर्म बाह्य व्यापार से साध्य होता है, उसमें परपीड़न तथा परानुग्रह से कर्माशय संचित होता है। तपस्वी स्वाध्यायी और ध्यानी व्यक्तियों का कर्म शुक्ल है। यह केवल मन के आधीन होने के कारण बाल साधन शून्य है। अतः यह कर्म पर पीडनादि पूर्वक नहीं होता है। क्लेशहीन, चरम-देह संन्यासीयों का कर्म अशुक्लाकृष्ण है। योगियों का कर्म फल संन्यास के कारण अशुक्ल और निषिद्ध कर्म त्याग के कारण अकृष्ण होता है। अन्य प्राणियों के कर्म उपयुक्त प्रकार से त्रिविध होते है।४५ योग दर्शन में कर्माशय के दो भेद किये गये है / जैसे कि - क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्ट जन्मवेदनीयः।४६ क्लेशमूलक कर्माशय दो प्रकार का है - दृष्ट जन्म वेदनीय और अदृष्ट जन्म वेदनीय। जिस जन्म में कर्म का संचय किया गया है, यदि उसी जन्म में वह फल देता है, तो उसे दृष्ट जन्म वेदनीय और यदि दूसरे जन्म में अर्थात् जन्मान्तर में फलोदय होता है, तो उसे अदृष्ट जन्म वेदनीय कहते है। इन दोनों के भी दो-दो भेद है- नियत विपाक और अनियत विपाक। यह विपाक भी तीन प्रकार का बताया गया है। जाति, आयु और भोग। अर्थात् बद्ध कर्मों का विपाक जन्म के रूप में आयु के रूप में और भोग के रूप में हो सकता है। किन्तु यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि अमुक कर्म जन्म रूप अमुक कर्म आयु रूप और अमुक कर्म योग के रूप में अपना फल प्रदान करता है। सभी कर्म मिलाकर जाति आदि तीन रूप में फल देते हैं। इतना ही संकेत मात्र किया गया है। जो कर्म दृष्ट जन्म वेदनीय है, वह केवल आयु और भोग इन दो रूपों में अपना फल देता है। क्योंकि जन्मान्तर में न जाने के कारण उसका विपाक जाति (जन्म) रूप से होना सम्भव नहीं है। कर्म के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए योग-दर्शन में आशय और वासना इन दो शब्दों का प्रयोग देखने | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIII पचम अध्याय | 332