Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ है। बादलों का समूह जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश को आच्छादित करके उसे निस्तेज कर देते हैं, उसी प्रकार घाती कर्म भी आत्म गुणों को घात करके उसे निस्तेज बना देते है। लेकिन इतना तो अवश्य समझने योग्य है कि घाती कर्म आत्मा के गुणों को कितना ही आच्छादित कर दे, फिर भी उसका अनन्तवां भाग तो अवश्य अनावृत्त रहता है, क्योंकि घाति कर्मों का भी सम्पूर्ण आवृत करने का सामर्थ्य नहीं है। यदि अनन्तवां भाव भी आवृत्त हो जाय तो जीव का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा। तथा जीव और अजीव में कोई अन्तर नहीं रहेगा। जीव ही अजीव माना जायेगा / जैसा कि नंदीसूत्र में कहा है - सव्व जीवाणं णियमं अक्खरस्स अनंत भागो णिच्चुघादिओ हवइ। जइ पुण सो वि आवरिज्जा तेणं जीवो अजीवतं पावेज्जा // 65 सभी जीवों का निश्चित अक्षर का अनंतवां भाग अनावृत्त होता है। यदि वह भी आच्छादित हो जाय तो जीव अजीवता को प्राप्त कर लेगा। आत्म गुणों का साक्षात् घात करने से घाती कर्मों को कर्म कहते है और अघाती कर्मों का आत्मा के साथ परोक्ष सम्बन्ध होने से तथा कर्मों के कार्य में सहायक होने से उन्हें नोकर्म भी कहते है। आठ कर्मों को लक्षण एवं स्वभाव से स्पष्ट किया जाता है। (1) ज्ञानावरण कर्म - आत्मा के ज्ञान गुण को आच्छादित करनेवाला कर्म ज्ञानावरण कहलाता है। ज्ञान अर्थात् विशेष रूप से वस्तु का बोध होना, जिसमें मतिज्ञान आदि आते है। सामान्य विशेषात्मके वस्तुनि विशेष ग्रहणात्मको बोध इत्यर्थ / / 6 / / __ आद्यं ज्ञानावरणं ज्ञायते अर्थो विशेषरूप तथाऽनेनेति ज्ञानं मतिज्ञानादि६७ ज्ञानमाव्रियते येन कर्मणा करणेऽनीयरि ज्ञाना वरणीयं विशेषावधारणामित्यर्थः / 68 / 'ज्ञानस्य आवरणं ज्ञानावरणं ज्ञानं मतिज्ञानादि।'६९ (1) जो आवृत्त करता है वह आवरण। इसमें जो कर्म ज्ञान का आवरण करता है वह ज्ञानावरण। ज्ञानावरण कर्म का आवरण जितना प्रगाढ़ होगा उतना ही जीव की ज्ञान चेतना का विकास अल्प होगा और आवरण जितना अल्प होगा उतना विकास अधिक होगा। इसका स्वभाव (कपडे की पट्टी) जैसा है। यदि आँख पर मोटे, पतले कपडे की जैसी पट्टी बन्धी होगी तदनुसार पदार्थ को विशेष रूप से नहीं देख सकता है। एसिं जं आवरणं पडुव्व चक्खुस्स तं तहाऽऽवरणं।७० कर्मरूप पट के समान ज्ञानरूप चक्षु से कुछ भी ज्ञात नहीं होता है। इस कर्म से जीव का अनंत ज्ञान गुण आवृत्त बना हुआ रहता है। (2) दर्शनावरण कर्म - यह कर्म आत्मा के दर्शन गुण को आवृत्त करता है। वस्तु के सामान्य अंश को ग्रहण करनेवाले बोध को दर्शन कहते है। “सामान्य विशेषात्मके वस्तुनि सामान्य ग्रहणात्मको बोधः।'७९ [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIII / पंचम अध्याय | 336]