Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ आचार्य हरिभद्रसूरि ने 'श्रावक प्रज्ञप्ति' की टीका में नामकर्म की व्याख्या इस प्रकार की है - तथा गत्यादि शुभा शुभनमनाम्नामयतीति नाम।८२ / / 'नामयतीति नाम' इस निरुक्ति के अनुसार जो कर्म शुभ या अशुभ गति आदि पर्यायों के अनुभव के प्रति नमाता है उसे नामकर्म कहा जाता है। इस कर्म को चित्रकार की उपमा दी है। जैसे कि'नाम कम्मचित्तिसमं।'८३ नाम कर्म चित्रकार के समान होता है। जैसे चित्रकार अनेक चित्र बनाता है, वैसे ही नाम कर्म भी जीव के अमूर्त होने पर भी उसके मनुष्य, पशु, पक्षी आदि अनेक रूपों का निर्माण करता है। जैसा स्थानांग टीका में कहा है - जह चित्तयरो मिडगो अणेग रुवाइं कुणइ सुवाई। सोहणमसोहणाई चोक्खम चोक्खेहिं वण्णेहिं। तह नाम पि हु कम्म, अणेग सूराइं कुणइ जीवस्स। सोहणमसोहणाइं इट्टाणि ठाई लोयस्स // 4 यह कर्म जीव को अरूपी स्वरूप प्राप्त नहीं होने देता है। गोत्रकर्म - जो कर्म जीव को उच्च या नीच कुल में जन्म लेने का निमित्त बनता है अथवा जिस कर्म के उदय से पूज्यता या अपूज्यता का भाव पैदा होता है, जीव उच्च या नीच (कुलीन या अकुलीन) कहलाता है, उसे गोत्र कर्म कहते है। - आचार्य हरिभद्रसूरि ‘श्रावक प्रज्ञप्ति' की टीका में कुछ विशेष रूप से इसकी व्याख्या की है- 'गां वाचं त्रायते इति गोत्रम्' इस निरुक्ति के अनुसार यद्यपि गोत्र का अर्थ वचन का रक्षण करनेवाला होता है, तो भी रुढि में क्रिया का प्रयोजन कर्मव्युत्पत्ति है, अर्थ क्रिया नहीं है, ऐसा मानकर ‘गोत्र' संज्ञा को भी कर्म विशेष में रुढ़ समझना चाहिए। अथवा गूयते शब्द्यते उच्चावचैः शब्दैः आत्मा यस्मात् तत् गोत्रम्' / इस निरुक्ति के अनुसार जिसके आश्रय से जीव ऊंच-नीच शब्दों से कहा जाता है उसका नाम गोत्र है। इस प्रकार उसका गोत्र यह नाम सार्थक भी कहा जा सकता है अथवा जो पर्यायविशेष ऊंच या नीच कुल में उत्पत्ति को प्रकट करनेवाली है उसका नाम गोत्र है और उस रूप में जिस कर्म का वेदन किया जाता है उसका नाम गोत्रकर्म है। इसका स्वभाव कुंभकार के समान है। ‘गोदे कुलाल सरिसं'।७ स्थानांग में - जह कुम्भारो भंडारं कुणइ पुज्जेयराइं लोयस्स। इस गोयं कुणइ जियं लोए पुज्जेयर मत्थं // 88 जैसे कुम्भकार मिट्टी के छोटे बड़े घड़ा आदि विविध प्रकार के बर्तन बनाता है। उनमें से कुछ घड़े ऐसे [आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIII VIA पंचम अध्याय | 339 )