Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ मोहनीय कर्म का उदय होता है तब जीव को वीतराग प्ररूपित धर्म पर रुचि अरुचि नहीं होती, यानी उसे दृढ श्रद्धा नहीं होती है कि वीतराग ने जो कुछ कहा है, वह सत्य है और न अश्रद्धा होती है कि वह असत्य है, अविश्वसनीय है। 16 वीतराग और सरागी एवं उनके कथन को समान रूप से ग्राह्य मानता है। आत्मा के गुणों का घात करने वाली कर्म प्रकृतियों में मिश्र मोहनीय प्रकृति का कार्य विलक्षण प्रकार का है। जैसे दही और गुड़ को परस्पर इस तरह से मिलाने पर कि फिर उन दोनों को पृथक्-पृथक् नहीं किया जा सके, तब प्रत्येक अंश का मिश्र रूप (कुछ खट्टा और कुछ मीठा दोनों का मिलाप रुप खट्टा-मीठा) स्वाद आता है। वैसे ही मिश्र मोहनीय के परिणाम केवल सम्यक्त्व रूप या केवल मिथ्यात्व रूप न होकर दोनों के मिले-जुले होते हैं। अर्थात् एक ही काल में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व रूप परिणाम रहते है।९१७ / / 'गोम्मटसार' जीवकाण्ड में उपरोक्त उदाहरण देकर मिश्र मोहनीय को विशेष स्पष्ट किया है। (3) मिथ्यात्व मोहनीय - जिस कर्म के उदय से जीव को तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप की रुचि ही न हो उसे मिथ्यात्व मोहनीय कहते है। मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से आत्मा को जीव आदि तत्त्वों के स्वरूप लक्षण और जिन प्ररूपित धर्म के प्रति श्रद्धा नहीं होती है / 18 जीव सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग पर न चलकर उसके प्रतिकूल मार्ग का अनुसरण करता है। हित में अहित बुद्धि और अहित में हित बुद्धि, अदेव में देवबुद्धि और अधर्म में धर्मबुद्धि होती है। जैसे रोगी को पथ्य की चीजें अच्छी नहीं लगती है और कूपथ्य की वस्तुएँ रुचिकर प्रतीत होती है, ऐसी ही वृत्ति मिथ्यात्व मोहनीय से ग्रस्त जीव की होती है। स्थानांग सूत्र में मिथ्यात्व के दस भेद बताये है - 1. साधु को साधु न समझना। 2. असाधु को साधु समझना। 3. अहिंसा मूलक धर्म को धर्म नहीं मानना / 4. हिंसा झूठ आदि अधर्म पाप मूलक कार्यों को धर्म मानना। 5. अजीव को जीव समझना। 6. जीव में अजीव बुद्धि रखना जैसे गाय, पक्षी, जल वनस्पति आदि मूक प्राणियों में आत्मा नहीं है। 7. कुमार्ग को सन्मार्ग मानना। 8. सुमार्ग को उन्मार्ग समझना, मोक्ष के कारणों को संसार के बन्ध का कारण बताना। 9. कर्म रहित को कर्म-सहित मानना, जैसे कि परमात्मा निष्कर्म है, किन्तु उन्हें भक्तों की रक्षा करनेवाला कहना। 10. कर्म सहित को कर्म-रहित कहना, जैसे कि भक्तों की रक्षा और शत्रुओं का नाश करना, बिना राग द्वेष के नहीं हो सकता है। फिर भी परमात्मा को कर्म-रहित मानना। भगवान सब करते हुए भी अलिप्त है आदि कहना।११९ | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व पंचम अध्याय | 344