Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ वैसे ही अनंतानुबंधी क्रोध, कठोर परिश्रम एवं अनेक उपाय करने पर भी शान्त नहीं होता है। अनंतानुबंधी मान के परिणाम पत्थर के खंभे के समान होता है जो कठोर परिश्रम करने पर भी नमना अशक्य है। अर्थात् नहीं नमता है। अनंतानुबंधी माया वंशमूल-बांस की जड़ में रहनेवाली वक्रता का सरल ऋजु होना प्रयत्न करने पर भी संभव नहीं है। अनंतानुबंधी लोभ कृमिराग सदृश है। किरमिची रंग जैसे किसी उपाय से दूर नहीं होता है वैसे ही अनंतानुबंधी लोभ के परिणाम उपाय करने पर भी दूर नहीं होते है। अनंतानुबंधी कषाय जन्म जन्मान्तरों तक विद्यमान रहते है। अर्थात् इनकी वासना संख्यात असंख्यात यावत् अनन्तभवों तक रह सकती है। इसके उदय वाला जीव नरक योग्य कर्मों का बन्ध करता है। अर्थात् वह जीव नरक में जाता है। (5) अप्रत्याख्यान कषाय - जिसमें अल्प भी प्रत्याख्यान करने का उत्साह नहीं होता है।१३१ अथवा जिनके उदित होने पर जीव को देश प्रत्याख्यान और सर्व प्रत्याख्यान का लाभ नहीं हो सकता है।१३२ अर्थात् जिसके उदय से जीव देशविरति को स्वल्प मात्र में भी करने में समर्थ नहीं होता है। श्रावक धर्म की प्राप्ति नहीं होती है। वह अप्रत्याख्यान कषाय कहलाता है।१३३३ अप्रत्याख्यान क्रोधादि के परिणामों की पहचान के लिए क्रमशः पृथ्वी भेद, अस्थि, मेषश्रृंग (भेड सींग), चक्रमल (कीचड) आदि की उपमा दी है। अर्थात् सूखी मिट्टी में आयी दरार पानी के संयोग से पुनः भर जाती है, वैसे ही अप्रत्याख्यान क्रोध कठोर परिश्रम करने पर शान्त हो जाता है। हड्डी का नमाना, भेडों के सींगो में रहनेवाली वक्रता को हटाना तथा गाडी के पहिये के कीचड़ को दूर करना यह सभी कठोर परिश्रम एवं अनेक उपाय द्वारा जैसे साध्य हैं, उसी प्रकार अप्रत्याख्यान मान, माया और लोभ के परिणाम अति परिश्रम एवं अनेक उपाय द्वारा दूर किये जा सकते है। इसकी मर्यादा एक वर्ष की है। इनके उदय से जीव तिर्यंच के योग्य कर्मों का बंध करके तिर्यंच गति में जाता है। (3) प्रत्याख्यान - प्रत्याख्यान, संयम, महाव्रत तीनों समानार्थक है। जिस कषाय के उदय से आत्मा को सर्वविरति चारित्र प्राप्त करने में बाधा हो अर्थात् श्रमणधर्म की प्राप्ति न हो उसे प्रत्याख्यानावरण कहते है।१३४ इसका उदय होने पर एकदेश त्यागरूप श्रावकाचार देशविरति के पालन में बाधा नहीं आती है, किन्तु सर्वविरति, सर्वथा त्याग, श्रमणधर्म, महाव्रतों का पालन नहीं हो पाता है।१३५ इसका अर्थ आचार्य हरिभद्रसूरि ने श्रावक प्रज्ञप्ति' की टीका में कुछ विशेष रूप से स्पष्ट किया है। उन्होंने 'आवरण' में जो आङ्' उपसर्ग है उसका ‘मर्यादा' अर्थ भी किया है और 'ईषत्' अर्थ भी किया है। जो प्रत्याख्यान का आवरण करते है उसे स्पष्ट होने नहीं देते है। उनका नाम प्रत्याख्यानावरण क्रोधादि है। ये मर्यादा में महाव्रतस्वरूप सर्वविरति को आच्छादित करते है, न कि देशविरति को। ईषत् अर्थ में भी वे सर्वविरति को ही अल्पमात्रा में आच्छादित किया करते है, देशविरति को नहीं।१३६ प्रत्याख्यानावरण क्रोध आदि परिणामों के लिए धूलि-रेखा, सूखी लकडी, गोमूत्र-रेखा और काजल के रंग की उपमा दी गई है। अर्थात् धूलि में खींची गयी रेखा हवा आदि के द्वारा कुछ समय में भर जाती है। वैसे | आचार्य हरिभदरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIN पचम अध्याय 346