________________ विस्तार दृष्टि से नामकर्म के तेरानवें और एक सौ तीन भेद हैं। इनमें अपेक्षा दृष्टि से भेद हैं। चौदह पिंड प्रकृतियों के पैंसठ है और अपिंड प्रकृतियों के अट्ठाईस भेदों का योग होने पर (65+28-93) तेरानवे होता है। .इसीलिए नामकर्म की उत्तर प्रकृतियाँ तेरानवे कही गई है। लेकिन बन्धन नामकर्म के मूल पाँच भेदों के जो संयोगज अंग पन्द्रह भी बनते है तब पाँच के स्थान पर पन्द्रह भेदों की विवक्षा करने पर पिंड प्रकृतियों की संख्या पचहत्तर बनती है। अतः (75+28-103) नामकर्म की 103 प्रकृतियाँ होती है। नामकर्म की उक्त विभिन्न संख्याओं में से कर्म विचारणा के सन्दर्भ में बन्ध उदय योग्य प्रकृतियों का विचार करने के लिए सडसठ तथा सत्ता के लिए मुख्य रूप से तेरानवे भेदों का उल्लेख किया जाता है। अब संक्षेप से नामकर्म की उत्तर-प्रकृतियों का विवेचन किया जाता है - पिंड प्रकृति अपिंडप्रकृति। पिंड प्रकृति में मूल चौदह है - . “गइ जाइ तणु उवंगा-बंधण-संघयणाणि संघयणा संठाण वण्ण गंध रस फास अणुपुब्वि विहगगई पिंड पयडित्ति चउदसः।"१५० गति, जाति, शरीर, अंगोपांग, बंधण, संघात, संघयण, संस्थान, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, आनुपूर्वि, विहायोगति - इन चौदह पिंड प्रकृतियों के उत्तर पैंसठ भेद है। 1. गति - जिसके उदय से जीव नरकादि गति को प्राप्त होता है वह नरकगति नामकर्म कहलाता है। इसी प्रकार तिर्यंचगति मनुष्यगति एवं देवगति नामकर्मों का भी स्वरूप समझना चाहिए। 2. जाति - जिसके उदय से जीव एकेन्द्रिय आदि जीवों में उत्पन्न होता है उसे जाति नामकर्म कहते है। अभिप्राय यह है कि जीवों में जो एकेन्द्रिय आदिरूप सदृश परिणाम हुआ करता है उसका नाम जाति है। वह जिस कर्म के उदय से हुआ करती उसे भी कारण में कार्य का उपचार करके जाति नामकर्म कहा जाता है।१५९ न्याय सूत्र में जाति की व्याख्या इस प्रकार की - ‘समान प्रवासात्मिका जातिः।'५५२ ___ अनेक व्यक्तियों में एकता की प्रतीति कराने वाले समान धर्म को जाति कहते है, जैसे गोत्व (गायपन) "सभी भिन्न-भिन्न रंगो आकृति वाली गाय में एकता, समानता बोध कराता है। इसी प्रकार एकेन्द्रिय जिसके उदय से जीव एकेन्द्रिय जाति में उत्पन्न होता है वह एकेन्द्रिय जाति नामकर्म और जिसके उदय से द्वीन्द्रिय जाति में उत्पन्न होता है वह द्वीन्द्रिय जातिकर्म कहलाता है। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जातिकर्म होते है। 1. एकेन्द्रिय जाति में जीव को एक इन्द्रिय (स्पर्श) होती है। जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि, वनस्पति आदि।१५३ 2. बेइन्द्रिय जाति नाम कर्म में जीव को स्पर्शन और रसन दो इन्द्रियाँ होती है। जैसे कि- शंख, सीप, अलसिया, चन्दनीया आदि। 3. त्रीन्द्रिय नामकर्म के उदय से जीव को स्पर्शन, रसन और घ्राण - ये तीन इन्द्रियाँ प्राप्त होती है। जैसे चींटी, मकोडा आदि। आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIII UVA पंचम अध्याय | 351 |