________________ 1. स्त्रीवेद जिसके उदय से स्त्री को पुरुष की अभिलाषा हुआ करती है। उसे स्त्रीवेद कहते है। 2. पुरुषवेद जिसके उदय से पुरुष को स्त्री की अभिलाषा हुआ करती है। उसे पुरुषवेद कहते है। * 3. नपुंसकवेद - जिसके उदय से स्त्री व पुरुष उभय की अभिलाषा होती है। उसे नपुंसकवेद कहते है। 4. हास्य - जिसके उदय से प्राणी को किसी निमित्त को पाकर या बिना निमित्त के भी हंसी आती है। वह हास्य कहलाता है। 5. रति - जिसके उदय से बाह्य व अभ्यन्तर वस्तुओं में प्रीति हुआ करती है। उसे रति मोहनीय कहते है। 6. अरति - जिसके उदय से सकारण या निष्कारण पदार्थों पर अप्रीति हुआ करती है। उसे अरति मोहनीय ___कहते है। 7. भय - जिसके उदय से किसी निमित्त के मिलने पर या बिना निमित्त के ही प्राणी अपने संकल्प के ___ अनुसार भयभीत होता है। उसे भय कहते है। 8. शोक - जिसके उदय से प्राणी किसी इष्ट जन के वियोग आदि अनेक प्रकार से विलाप करता है। वह शोक नोकषाय कहलाता है। 9. जुगुप्सा - जिसके उदय से चेतन व अचेतन वस्तुओं में घृणा उत्पन्न होती है। उसे जुगुप्सा नोकषाय कहा जाता है।१४३ इसमें जो तीन वेद है इनका विकार एक एक से बढ़कर होता है। जैसे कि पुरुष वेद का विकार घास की अग्नि' के समान होता है जो शीघ्र शान्त हो जाता है। स्त्री वेद का विकार ‘करीषाग्नि' के समान के सदृश है, जो जल्दी शान्त नहीं होता है, तथा नपुंसकवेद का विकार नगर-दाह के समान होता है, जैसे नगर में आग लगने पर वह कई दिनों तक नगर को जलाती है। उसको बुझाने में बहुत दिन लगते है, वैसे ही नपुंसक वेद का विकार बहुत देर से शांत होता है।१४४ कषाय वेदनीय के सोलह और नोकषाय वेदनीय के 9 इस प्रकार चारित्र मोहनीय कर्म के 25 दर्शनीय मोहनीय के 3 इस प्रकार 28 भेद हुए। (5) आयुष्य कर्म - जीवों के अस्तित्व का नियामक आयुकर्म है। आयु कर्म के दो प्रकार- (1) अपवर्तनीय (2) अनपवर्तनीय। 1. अपवर्तनीय - बाल्य निमित्त के सम्बन्ध से जो आयु बांधे गये समय से कम हो जाती है, उसे अपवर्तनीय आयु कहते है। अर्थात् जल में डूबने शस्त्रघात विषपान फांसी आदि बाल्य कारणों से सौ-पचास आदि वर्षों के लिए आयु बांधी गयी थी। उसे अन्तर्मुहूर्त में भोग लेना आयु का अपवर्तन है।१४५ इस आयु को अकाल मृत्यु भी कहते है। 2. अनपवर्तनीय - जो आयु किसी भी कारण से कम न हो जितने काल के लिए बांधी गयी थी उतने काल तक भोगी जाए, वह अनपवर्तनीय आयु कहलाती है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIII पंचम अध्याय | 349 ]