________________ दर्शनावरण कर्म द्वारा जीव की पदार्थ के सामान्य रूप का अवलोकन करनेवाली शक्ति आवृत्त होती है चक्षुदर्शनादि। ___ 'सामान्यावबोध वारकत्वात् / दर्शनं चक्षुदर्शनादि।७२ दर्शन का आवरण दर्शनावरण या दर्शनावरणीय कहलाता है। इसका स्वभाव द्वारपाल के समान है। 'वित्ति समं दर्शनावरणं / '73 जिस प्रकार द्वारपाल द्वार पर ही रोककर व्यक्ति को राजा के दर्शन नहीं करने देता, वैसे ही दर्शनावरण कर्म आत्मा के दर्शन गुण को प्रकट नहीं होने देता। अथवा द्वारपाल के द्वारा रोके गये मनुष्य को राजा नहीं देख सकता। उसी प्रकार जीवरूपी राजा दर्शनावरण कर्म के उदय से पदार्थ और विषय को नहीं देख सकता है। इस कर्म से जीव का अनन्त दर्शन आवृत्तं बना हुआ रहता है। ___ (3) वेदनीय कर्म - यह कर्म आत्मा के अव्याबाध सुख को आच्छादित करता है। इस वेदनीय कर्म द्वारा संसारी जीव को शाता (सुख) अशाता (दुःख) दोनों का वेदन होता है। उसे वेदनीय कर्म कहते है। 'तृतीयं च वेदनीयं साता सातरूपेण वेद्यत इति वेदनीयम्।७४ इस कर्म के उदय से संसारी जीवों को ऐसी वस्तुओं से सम्बन्ध हो जाता है जिसके निमित्त से वो सुखदुःख दोनों का अनुभव करते है। संसारी जीवों को एकान्त रूप से सुख नहीं मिलता है किन्तु दुःख का अंश भी मिश्रित रहता है। इसीलिए इस कर्म की तुलना मधुलिप्त तलवार को चाटने से की गई है। जैसे शहद से लिपटी तलवार को चाटने से पहले सुख का अनुभव होता है लेकिन जिह्वा कट जाने से दुःख का भी अनुभव होता है। उसी प्रकार वेदनीय कर्म के उदय से संसारी जीव को शाता और अशाता दोनों प्राप्त होता है। अर्थात् वेदनीय कर्म जन्य वैषयिक सुख वास्तव में दुःख का रूप है। यह कर्म जीव के अव्याबाध अनन्त सुख को रोकता है।७५ (4) मोहनीय कर्म - यह कर्म आत्मा को मोहित कर लेता है - विकृत बना देता है। जिससे हित अहित का भान नहीं रहता और सदाचरण में प्रवृत्ति नहीं करने देता है / स्व-पर विवेक जीव का सम्यक्त्व गुण तथा अनन्तचारित्र गुण को प्राप्ति में जीव को बाधा पहुँचाने वाले कर्म को मोहनीय कर्म कहते है। इसका स्वभाव मदिरा के समान है। 'मजं व मोहनीय।'७६ मदिरा पीने पर जैसे व्यक्ति अपने कर्तव्याकर्तव्य, हिताहित व अच्छे बुरे का भान भूल जाता है। वैसे ही मोहनीय कर्म के प्रभाव से जीव सत्-असत् - अच्छे-बुरे के विवेक से शून्य होकर परवश हो जाता है। वह सांसारिक विकारों में फंस जाता है। अपने वास्तविक स्वभाव को भूलकर स्त्री-पुत्र-धन-सम्पत्ति आदि पर पदार्थों को अपना समझ लेता है। उनकी प्राप्ति होने पर वह सुखी होता है। तथा चले जाने पर दुःखी होता है। आठ कर्मों में मोहनीय कर्म का वर्चस्व सबसे ज्यादा है तथा सब कर्म में यह भयंकर और बलवान है। सभी कर्मों की जड़ मोह है। अतः मोहनीय कर्म के नष्ट होने पर शेष सभी कर्म निःशेष हो जाते है। जैसे राजा मरने पर सेना भाग जाती है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VII पंचम अध्याय 337