Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ हो सकते है, उन्हें विविध दशाओं के रूप में चित्रित किया गया है कि कर्मों के अमुक-अमुक भेद है और अमुक अवस्थाएँ होती है। किन्तु अन्य दर्शनों में इस प्रकार का श्रेणी विभाजन नहीं पाया जाता है। जैन वाङ्मय में कर्म के भेदों प्रभेदों का अत्यंत विस्तार से विवेचन किया गया है। जैनागम में सर्वमान्य द्वादशाङ्गी जिसमें चौदह पूर्व समाविष्ट है / जिसका आठवाँ कर्मवाद पूर्व है। जिसमें कर्म का गहनता-गंभीरता से विश्लेषण किया गया है तथा वह सर्वज्ञ कथित होने से निःशंकित है और उसी कारण आज दिन तक कर्मविवेचन का स्वरूप वैसा ही चला आ रहा है, क्योंकि सर्वज्ञ राग-द्वेष से विरक्त होने से उनका कथन निष्पक्ष होता है। जबकि अन्य दर्शनों में वैसा अभाव होने के कारण अनेक विचार धाराएँ प्रवाहित होती रहती है। लेकिन जैन दर्शन में अस्खलित रूप से वही धारा प्रवाहित होती रहेगी। जैसे कि आगम में कर्म के प्रधानतया आठ भेद बताये हैं तथा 158 उत्तर प्रकृतियों का विवेचन किया है। वैसे तो आत्मा में अनन्त गुण है। जिसमें से कुछ सामान्य और कुछ असामान्य। जो गुण जीव में तथा उसके अतिरिक्त में भी पाये जाते है - वे प्रमेयत्व, प्रदेशत्व आदि साधारण गुण कहे जाते है तथा जो जीव में ही पाये जाते हैं, जैसे - सुख, ज्ञान, दर्शन, चैतन्य आदि ये असामान्य गुण है। यद्यपि आत्मा में अनन्त गुणों के होने से उनको आवृत्त करनेवाले कर्मों के भी अनन्त भेद होंगे, परंतु सरलता से समझने के लिए उन अनंत गुणों में से आठ गुण मुख्य है। उनमें शेष सभी गुणों का समावेश हो जाता है। ये आठ गुण इस प्रकार द्रव्यसंग्रह की टीका में मिलते है। ‘सम्मत्तणाण दसण वीरिय सुहुमं तहेव अवगहणं अगुरूलहु अव्वावाहं अट्ठगुणा हुंति सिद्धाणं / '51 (1) ज्ञान (2) दर्शन (3) सम्यक्त्व (4) वीर्य (5) अव्याबाध सुख (6) अटल अवगाहन (7) अमूर्तत्व और (8) अगुरुलघुत्व। . उक्त आठ गुणों को आवृत करने के कारण कर्म परमाणु भी आठ गुणों में विभक्त हो जाते है और अलग-अलग नामों से सम्बोधित किये जाते है / अर्थात् आत्मा के अनन्त गुणों में से ज्ञान दर्शन आदि आठ गुणों को मुख्य मानने से उनको आवृत्त करनेवाले कर्मों के भी आठ भेद हैं। श्रावक प्रज्ञप्ति५२ में भी कर्म के 8 प्रकार बताये है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने भी पूर्वाचार्य का अनुसरण करते हुए इसी प्रकार का विवेचन ‘धर्मसंग्रहणी' में किया है - नाणादिपरिणति विधायणादिसमत्थसंजुयं कम्म। तं पुण अट्ठपगारं पन्नतं वीय रागेहिं / / 53 / / ___ कर्म जीव के ज्ञान, दर्शन आदि परिणति का नाश करनेवाला और जीव को शाता अशाता का अनुभव कराने का सामर्थ्य वाला है। यह कर्म प्रतिनियतस्वभाव के भेद के कारण आठ प्रकार का है / ऐसा वीतराग परमात्मा ने कहा है। [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIII व पंचम अध्याय | 334