Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ (4) निकाचित बन्ध-सुईयाँ अग्नि की गरमी के कारण पिघल कर लोहे की प्लेट के जैसे एक रस हो गई। अब सूई स्वतंत्र आकार में नहीं दिखती है। अब उसे किसी भी प्रयत्न से अलग नहीं कर सकते। रेशमी धागे में गांठ कसकर लगा दी, ऊपर मोम लगा दिया जाय, अब वह खुलना संभव नहीं है। उसी प्रकार निकाचित कर्म बंध तपादि अनुष्ठान से सक्षम नहीं होते है। जैसे महावीर स्वामी ने 18 वें त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव में शय्यापालकों के कानों में गरम-गरम शीशा डलवाकर जो भयंकर निकाचित कर्म बांधा था / वह अंतिम सत्ताईसवें भव में महावीर स्वामी के कानों में खीले ठोंके गए। यह स्वतंत्र शंका रहित रस पूर्वक करता है। 'कर्म के भेद-प्रभेद - सामान्यतः कर्म का कार्य है मोक्ष प्राप्ति न होने देना। इस दृष्टि से विचारे तो कर्म का कोई भेद नहीं होता है और भेद प्रभेद करने की आवश्यकता भी नहीं है। लेकिन जैसे हम क्षुधा शान्त करने के लिए भोजन करते है तब ही वह भोजन रुधिर मांस आदि धातु-उपधातुओं के रूप में परिवर्तित होते है। उसी प्रकार कर्म परमाणु भी कृत कर्म के अनुरूप जीव के गुणों को आवृत्त करने के साथ साथ सुख-दुःख कर वेदन कराते रहते है। इसी आपेक्षिक दृष्टिकोण के अनुसार कर्मों के भेद किये गये हैं। __साधारणतया सभी दर्शनिकों ने कर्म के भेदों का उल्लेख अच्छा कर्म और बुरा कर्म इन दो प्रकारों में किया है। लोक व्यवहार में भी कर्म के भेदों के लिए यही धारणा प्रचलित है। इन्हीं को विभिन्न शास्त्रकारों ने शुभ-अशुभ, पुण्य-पाप, कुशल-अकुशल, शुक्ल-कृष्ण आदि नामों से सम्बोधित किया है। जैसे 'षड्दर्शन समुच्चय' की टीका में कर्म के दो भेद इस प्रकार मिलते है - 'तत्र पुण्यं शुभाः कर्म कर्मपुद्गलाः। त एव त्वशुभाः पापम्। शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य। अच्छा फल देनेवाला कर्मपुद्गल पुण्य है, तथा बुरा फल देनेवाला कर्मपुद्गल पापरूप है। इससे यह कहा जा सकता है कि कर्म के शुभ-अशुभ आदि के रूप में जो दो भेद दिये है, वे प्राचीनतम है और प्रारम्भिक कर्म विचारणा के समय दर्शनिकों ने यही दो भेद स्वीकार किये होंगे। इनके अतिरिक्त भी दर्शनिकों ने भिन्न-भिन्न दृष्टियों से कर्म के भेद किये है। जैसे कि गीता में सात्त्विक, राजस् और तामस् ये तीन भेद मिलते हैं। इसका पुण्य-पाप, शुभ-अशुभ आदि पूर्वोक्त सर्वमान्य भेदों में समावेश हो जाता है। _फल की दृष्टि से कर्म के संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण ये तीन भेद दर्शनान्तरों में दिखाई देते है। जिसका फल आरब्ध हुआ वह प्रारब्ध, जो वर्तमान जन्म में कृत हो रहा है वह क्रियमाण है एवं जिसका फल वर्तमान जन्म में आरब्ध नहीं हुआ है वह संचित है। इन भेदों में जैन दर्शन मान्य उदय के लिए प्रारब्ध, सत्ता के लिए संचित और बन्ध के लिए क्रियमाण शब्द का प्रयोग हुआ है। अर्थात् प्रारब्ध, संचित और क्रियमाण क्रमशः उदय, सत्ता और बन्ध के ही अपर नाम है। इनका इस प्रकार नाम देने के पीछे भी रहस्य है। वह इस प्रकार कि जिस समय कर्म-क्रिया की जाती है, उस समय वह क्रिया अवश्य दिखती है। लेकिन उस समय के व्यतीत हो जाने पर वह क्रिया स्वरूपतः शेष नहीं रहती, वह अदृश्य रूप ले लेती है। क्रिया आदि से उत्पन्न उन सभी संचित कर्मों का एक साथ भोगना विपाक सम्भव नहीं है। क्योंकि उनके परिणामों में से कुछ अच्छे और [आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII A पंचम अध्याय | 331)