Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ जिस प्रकार सन्तप्त लोहे के गोले को पानी में डालने पर वह सब ओर से पानी को ग्रहण किया करता है। उसी प्रकार क्रोधादि कषायों से सन्तप्त हुआ जीव जो सब ओर से कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण किया करता है वह बन्ध कहा जाता है। वह चार प्रकार का है - (1) प्रकृतिबन्ध (2) स्थितिबन्ध (3) अनुभागबन्ध (4) प्रदेशबन्ध - इन चारों का अर्थ 'नवतत्त्व' में संक्षेप से इस प्रकार बताया है। पई सहावो वुत्तो ठिई कालावहारणं। अणुभागो रसो णेओ, पएसो दल संचओ॥३६ प्रकृति का अर्थ स्वभाव, स्थिति अर्थात् समय की निश्चित्तता, अनुभाग यानि रस, प्रदेश यानि परमाणुओं का प्रमाण। आचार्य हरिभद्र सूरि द्वारा रचित 'श्रावक प्रज्ञप्ति' में इसी स्वरूप को इस प्रकार बताया है। (1) प्रकृति बन्ध : इनमें ज्ञानावरणादि रूप स्वभाव को लिए हुए जो कर्म पुद्गलों का जीव के साथ सम्बन्ध होता है। उसे प्रकृतिबन्ध कहते है। - (2) स्थिति बन्ध : ज्ञानावरणादि रूप उन पुद्गलों के मूल व उत्तर प्रकृतियों के रूप में आत्मा के साथ सम्बद्ध रहने के उत्कृष्ट और जघन्य काल को स्थितिबन्ध कहा जाता है। (3) अनुभाग बन्ध : उन्हीं कर्म पुद्गलों में हीनाधिक फलदान शक्ति का प्रादुर्भाव होता है जिसे आगामी काल में यथा समय भोगा जाता है। उसका नाम अनुभाग बन्ध है। (4) प्रदेश बन्ध : इन्हीं कर्म परमाणुओं का आत्मा प्रदेशों के साथ जो एक क्षेत्रावगाह रूप सम्बन्ध होता है तथा समयानुसार विशिष्ट विपाक से रहित वेदन किया जाता है यह प्रदेश बन्ध कहलाता है।३७ - प्रकृति बन्ध आदि उक्त चारों प्रकारों का स्वरूप शास्त्रों में दिये गये लड्डुओं के दृष्टांत द्वारा स्पष्ट होता है। जैसे आटा, घी, चीनी के समान होने पर भी वातनाशक पदार्थों से बने हुए लड्डुओं का स्वभाव वात्त को शमन करनेवाले होते है और पित्तनाशक वस्तुओं से बने लड्डुओं में पित्त को शमन करने की शक्ति एवं कफ नाशक औषधियों से संयुक्त में कफ का नाश करने की शक्ति होती है, वैसे ही आत्मा द्वारा ग्रहण किये गये कर्म पुद्गलों में से कुछ कर्म पुद्गलों में ज्ञान को आच्छादित करने की, कुछ में दर्शन गुण को आवृत्त करने की शक्ति आदि की उत्पत्ति हो जाती है। इस प्रकार गृहीत कर्म पुद्गलों में भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रवृत्तियों स्वभावों के बन्ध और स्वभावों के उत्पन्न होने को प्रकृति बन्ध कहते है। - जैसे उक्त औषधि मिश्रित लड्डुओं में से कुछ की एक सप्ताह, कुछ एक पक्ष, कुछ एक माह तक अपने स्वभाव में बने रहने की काल मर्यादा होती है। इस मर्यादा को स्थिति कहते है। इसी प्रकार कोई कर्म आत्मा के साथ 20 कोडाकोडि सागरोपम रहता है तो कोई 30, 70 कोडाकोडि सागरोपम रहता है। यही उनका स्थिति बन्ध है और उस स्थिति के बाद बद्ध कर्म अपने स्वभाव का भी त्याग कर देते है। ___ जैसे उक्त औषधि मिश्रित लड्डुओं में से कुछ लड्डुओं में मधुरता अधिक होती है, तो कुछ में कम, कुछ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VII पंचम अध्याय | 329 ]