Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ आचारांग में दूसरे महाव्रत की भावनाएँ भी बताई है। वह इस प्रकार है - 1. जो सम्यक् प्रकार से बोलता है वह निर्ग्रन्थ है। बिना विचार किये बोलता है वह निर्ग्रन्थ नहीं। केवली भगवन्त कहते है बिना विचारे बोलने वाले निर्ग्रन्थ को मिथ्याभाषण का दोष लगता है। अत: विषय के अनुरूप चिन्तन करके विवेक पूर्वक बोलने वाला साधक ही निर्ग्रन्थ कहलाता है। बिना विचार किये बोलने वाला नहीं। यह प्रथम भावना है। 2. क्रोध का कटु परिणाम जानकर उसका परित्याग कर देता है। वह निर्ग्रन्थ है। केवली भगवन्त कहते है कि क्रोध आने पर क्रोधी व्यक्ति आवेशवश असत्य वचन का प्रयोग कर देता है। अत: जो साधक क्रोध का परित्याग करता है वही निर्ग्रन्थ कहलाता है। यह दूसरी भावना है। 3. जो लोभ का दुष्परिणाम जानकर उसका परित्याग कर देता है। वह निर्ग्रन्थ है साधु लोभग्रस्त न हो। केवली भगवन्त का कथन है कि लोभग्रस्त व्यक्ति लोभावेशवश असत्य बोल देता है। अत: जो साधक लोभ का परित्याग कर देता है वही निर्ग्रन्थ है। यह तीसरी भावना है। ___4. जो साधक भय को जानकर उसका परित्याग कर देता है वह निर्ग्रन्थ है केवली भगवन्त का कथन है भयग्रस्त भीरू व्यक्ति भयाविष्ट होकर असत्य बोल देता है। अत: जो साधक भय का परित्याग करता है वह निर्ग्रन्थ है। यह चोथी भावना है। 5. जो साधक हास्य के अनिष्ट विपाकों को जानकर उसका त्याग कर देता हैं वह निर्ग्रन्थ हँसी मजाक करने वाला न हो। केवली भगवन्त का कथन है कि हास्यवश व्यक्ति असत्य भी बोल देता है इसलिए मुनि को हास्य का त्याग करना चाहिए। यह पाँचवी भावना है / 239 __वृत्तिकार ने 'अणुवीइभासी' का अर्थ किया है जो कुछ बोलना है या जिसके सम्बन्ध में कुछ कहना है पहले उसके सन्दर्भ में उसके अनुरूप विचार करके बोलना। बिना सोच विचारे यो ही सहसा कुछ बोल देना या किसी विषय में कुछ कह देने से अनेक अनर्थो की सम्भावना है। बोलने से पूर्व उसके इष्ट - अनिष्ट हानि- लाभ हिताहित परिणाम का भलीभाँति विचार करना आवश्यक है।२४० चूर्णिकार अणुवीयिभासी का अर्थ करते हैं पुव्व बुद्धीए पासिता अर्थात् पहले अपनी निर्मल व तटस्थ बुद्धि से निरीक्षण करके फिर बोलनेवाला।२४९ तत्त्वार्थसूत्रकार ‘अनुवीचीभाषण' का यह अर्थ करते हैं निरवद्य निर्दोष भाषण२४२ क्रोधान्ध और भयभीत व्यक्ति भी आवेश में आकर कुछ का कुछ अथवा लक्ष्य से विपरीत कह देता है। अत: ऐसा करने से असत्य दोष की सम्भावना रहती है। हँसी मजाक में मनुष्य प्रायः असत्य बोल जाया करता है। चूर्णिकार कहते है कि- क्रोध में व्यक्ति पुत्र को अपुत्र कह देता है / लोभी भी कार्य अकार्य का अनभिज्ञ होकर मिथ्या बोल देता है। भयभीत भी भयवश अचोर को चोर कह देता है। इस प्रकार द्वितीय महाव्रत में आचार्य हरिभद्रसूरि ने धर्मसंग्रहणी में विशेष प्रकार से मृषावाद का निरूपण किया है लेकिन भावनाओं का उल्लेख नहीं किया। अब तृतीय महाव्रत का निरूपण जो कि आचारांग | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI IIIIIIA चतुर्थ अध्याय | 288 )