Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ त पर ही सब कुछ निर्भर है। यहाँ तक कि ईश्वर की इच्छा के बिना एक वृक्ष का पत्ता भी नहीं हिल सकता। इस प्रकार अनेक धर्मों और दर्शनों ने ईश्वर सत्ता को सृष्टि के साथ मानकर वास्तव में ईश्वर के स्वरूप को विकृत कर दिया है। ईश्वर निर्मित और संचालित विश्व किसी भी तर्क-युक्ति की कसोटी पर सिद्ध हो ही नहीं पा रहा है। ईश्वरकृत संसार की विचित्रता का समाधान अज्ञानी जनों को तृप्त कर सकता है। लेकिन प्रबुद्ध जनों की वहाँ प्रवृत्ति नहीं होगी। अर्थात् मेधावी जन उससे संतुष्ट नहीं होगे। समस्त विश्व कर्म-सिद्धान्त की प्रक्रिया को स्वीकारे या नहीं स्वीकारे लेकिन संपूर्ण लोक और अनन्त जीव सबका सारा व्यवहार कर्म-सिद्धान्त के आधार पर ही चल रहा है। तभी तो जब लोकस्वरूप के चिंतक एवं तत्त्वज्ञानियों के सामने जगत विचित्रता का प्रश्न आया तो उन्होंने सही समाधान करते हुए कहा “कर्मजं लोक वैचित्र्यं' अर्थात् जीवमात्र में पाई जानेवाली विचित्रता और विषमता का कारण कर्म है। जीव विज्ञान की यह विचित्रता कर्मजन्य है, कर्म के कारण है। 'भगवद् गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से यही बात कही है। .. यह एक ध्रुव सत्य है कि कर्म एक ऐसी शक्ति तथा अपूर्व ऊर्जा है जो व्यक्ति को प्रतिपल सक्रिय क्रियाशील रखती है। जगत में कोई भी व्यक्ति निष्क्रिय जीवन नहीं जी सकता है / प्रत्येक व्यक्ति कुछ क्रिया करता ही रहता है और इसी क्रियाशीलता की संप्ररेक शक्ति कर्म है। इसलिए ही जैन दर्शनकारों ने कर्म सिद्धान्त को विशेष प्रिय बनाया है। लोक व्यवहार में कर्मशब्द, काम, धन्धा, व्यापार, कृषि, भारवहन आदि अर्थों में प्रयुक्त हुआ तथा न्यायदर्शन में पदार्थ निरूपण में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य आदि में जो कर्म शब्द आया वह पाँच प्रकार का बताया है। एतो कम्मं च पंचविंह उक्खेवणमवक्खेवण पसारणकुञ्चणागमणं। उत्क्षेपावक्षेपावाकुञ्चनकं प्रसारणं गमनम्। पञ्चविधं कर्मेतत्। उत्क्षेपण, अवक्षेपण, प्रसारण आकुञ्चन और गमन ये पाँच प्रकार के कर्म न्यायदर्शन में प्रसिद्ध है। व्याकरण में कारक भेद में कर्म का प्रयोग हुआ है। “कर्तुरिप्सिततमं कर्म।" कर्ता क्रिया के द्वारा जिसे विशेष रूप से प्राप्त करना चाहता है वह कर्म कहलाता है। “यथा स ग्राम गच्छति'' यहाँ कर्ता सः अर्थात् वह, गच्छति यानि जाना वह जाने की क्रिया द्वारा ग्राम को प्राप्त करना चाहता है। अतः ग्राम कर्म है। लेकिन जैनागमों में कर्म का एक विशिष्ट अर्थ किया गया है। जो इस प्रकार है - मन, वचन और काय आदि योगों का जो व्यापार वह कर्म कहलाता है। स्थानांग की टीका में भ्रमण आदि क्रियाओं को कर्म कहा है। जब कि सूत्रकृतांग में संयम अनुष्ठान रूप क्रिया को कर्म कहा है। किन्तु कर्मग्रन्थकारों ने कर्म का अर्थ इस प्रकार किया है - | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VII व पंचम अध्याय | 322]