Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
View full book text
________________ सतत चिपकते जाते है। वे अपनी तरफ से स्वयं नहीं चिपकते परंतु राग-द्वेष की प्रवृत्ति करके स्वयं चुम्बकीय शक्ति से उन्हें खींचते रहते हैं और जैसे आटे में पानी डालकर पिण्ड बनाया जाता है, वैसे ही जीव अपने रागद्वेष के शुभाशुभ अध्यवसाय से उन कार्मण वर्गणाओं के पुद्गल परमाणुओं को पिण्ड रूप में बनाकर कर्म रूप में परिणमन करते हैं। ऐसे राग-द्वेष के अध्यवसाय कदम-कदम पर बनते रहते है। क्योंकि उन्हें वैसे निमित्त मिलते रहते है। एवं अट्ठविहं कम्मं राग दोष समज्जि।१२ * इस तरह राग द्वेष से उपार्जित आठों ही कर्म है। अर्थात् आठों ही कर्म राग-द्वेष से उपार्जित होते है। ___ इस प्रकार कर्म केवल संसार मात्र ही नहीं है, किन्तु एक स्वतन्त्र वस्तुभूत पदार्थ भी है, जो जीव की राग द्वेषात्मक क्रिया से आकृष्ट होकर आत्मा के साथ लग जाते है। अर्थात् संक्षेप से हम यह कह सकते है कि राग द्वेष से युक्त संसारी जीव शुभ या अशुभ परिणति में रमण करता है तब कर्म रूपी पुद्गल उससे आकृष्ट होकर आत्मा के साथ चिपक जाते है और अच्छा बुरा फल देते है। उन्हीं का नाम कर्म अर्थात् यही कर्म का स्वरूप है। ___कर्म की पौद्गलिकता - इस विश्व में अनेक पुद्गल है। लेकिन सभी पुद्गल कर्म स्वरूप नहीं बनते है। आठ वर्गणाओं में जो कार्मण वर्गणा है, उसमें जो पुद्गल प्रयुक्त होते है / वे ही कर्म रूप में ग्रहण होते है और इसी कारण से सभी कर्म' पुद्गल स्वरूप कहे जाते है। ऐसा आचार्य हरिभद्रसूरि ने अपने ग्रन्थों में लिखा है। वह इस प्रकार - चित्तं पोग्गलरुवं विन्नेयं सव्वमेवेदं / 13 कम्मं च चित्तपोग्गलरुवं / 14 | ज्ञानावरणीय आदि कर्म चित्र-विचित्र अनेक फल अनुभवों में कारणभूत होने से विचित्र स्वरूप वाले हैं तथा ये सभी कर्म पुद्गल द्रव्यमय समझना चाहिए। कर्म बन्ध की प्रक्रिया - बन्ध का सामान्य अर्थ दो भिन्न-भिन्न अस्तित्व वाली वस्तुओं का एक दूसरे के साथ मिल जाना, संयुक्त हो जाना / लौकिक व्यवहार में संप्रयुक्त बन्ध के इस अर्थ को शास्त्रकार भगवंतों ने भी स्वीकार किया है, कि पृथक्-पृथक् अस्तित्ववाले आत्म तत्त्व और अनात्म तत्त्व (कर्म) का जो विशिष्ट संयोग होता है उसे बन्ध कहते है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने “श्रावक प्रज्ञप्ति” की टीका में बन्ध की व्याख्या इस प्रकार की है - “कषाय सहित होने के कारण जीव जो कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण किया करता है उसे बन्ध कहते है।५ “तत्त्वार्थ टीका'१६ तथा “षड्दर्शन समुच्चय'१७ में भी बन्ध की इसी व्याख्या को स्वीकृत की है। आत्मा और कर्म के संयोग को दर्शनान्तरों ने अन्य नामों से स्वीकार किया है। जिसका आचार्य हरिभद्रसूरि ने “योगबिन्दु” में स्पष्ट उल्लेख किया है। भ्रान्ति-प्रवृत्ति-बन्धास्तु संयोगस्येति कीर्तितम्।१८ | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIII पंचम अध्याय | 325