________________ पचम अध्याय कर्म - मीमांसा जैन वाङ्मय में कर्म-सिद्धान्त गहन एवं विशाल है। जैन वाङ्मय में कर्म-सिद्धान्त की महत्ता बेजोड़ एवं अद्भुत है। देह में प्राण के महत्त्व के समान उसका मूल्य अंकित किया गया है। जैन धर्म और दर्शन में कर्मसिद्धान्त केन्द्र में स्थित है। जिस प्रकार कुण्डली में केन्द्र स्थित शुभ ग्रहों का प्रभाव बेजोड़ होता है जातक के लिए उसी प्रकार केन्द्र में स्थित कर्म-सिद्धान्त का प्रभाव भी साधक के लिए बलवत्तर होता है। कर्म-सिद्धान्त के अभ्यास के बिना जैन धर्म का अभ्यास संभव नहीं है। यदि करता भी है तो वह अपूर्णता ही महसूस करेगा। अतः जैन वाङ्मय में कर्म-सिद्धान्त देह पर आभूषणों की भाँति शोभायमान हो रहा है। जैन-वाङ्मय में कर्मसिद्धान्तों की नींव पर अन्य सिद्धान्तों रूपी महल खड़ा होता है। कर्म की परिभाषा - जैन आगमों में धर्म और कर्म इन दोनों शब्दों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुआ है। ये दोनों शब्द प्राचीन है। अनादि काल से कर्मचक्र जीवात्मा के पीछे लगा हुआ है तथा जीवात्मा राग-द्वेष की परिणति द्वारा कर्मचक्र को गतिमान.करता है। उस कर्मचक्र को हटाने का कार्य धर्मचक्र करता है। 'कर्म' बन्धन का प्रतीक है जब कि 'धर्म' मुक्ति का प्रतीक है। लेकिन जब तक व्यक्ति कर्म-तत्त्व को पूर्णतया नहीं समझेगा तब तक वह मुक्ति मार्ग के गूढ 'धर्म' तत्त्व को नहीं समझ सकेगा। अतः 'कर्म' के सिद्धान्त से प्रबुद्ध होना आवश्यक है। जगत में प्रत्येक आत्मा अपने मूल स्वभाव की दृष्टि में एक समान है। फिर भी संसार अनेक विचित्रताओं एवं विविधताओं से भरपूर दृष्टिगोचर होता है। जैसे कि कोई राजा है, तो कोई रंक है। कोई रोगी है, तो कोई निरोगी है। कोई पशु-पक्षी है, तो कोई मनुष्य / कोई स्त्री है तो कोई पुरुष / यह सभी भेद क्यों ? ऐसी शंका स्वाभाविक हो जाती है। _ सृष्टि का कर्ता ईश्वर को माननेवाले तो इसका समाधान ईश्वर की इच्छानुसार यह विविधता है। इस प्रकार देते है - जैसे कि ईश्वर प्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा। अन्यो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः॥' ईश्वर के द्वारा भेजा हुआ जीव स्वर्ग में, नरक में जाता है। ईश्वर की सहायता के बिना कोई भी जीव अपने सुख-दुःख को पाने में, उत्पन्न करने में स्वतंत्र भी नहीं है एवं समर्थ भी नहीं है। संसारस्थ सभी जीवों के सुख-दुःख की लगाम भी ईश्वर के अधीन रखी है। ईश्वर ही जैसा रखे उसको वैसा रहना होगा। ईश्वर की इच्छा [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIII पंचम अध्याय | 321