Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ जैन शासन में प्रसिद्ध ऐसे अशनादि चारों प्रकार के आहार के भोजन से सर्वथा सुप्रणिधान पूर्वक त्याग करना ही साधुओ का अंतिम छट्ठा मूलगुण है। आचार्य हरिभद्रसूरि रचित 'धर्मसंग्रहणी' तथा 'पञ्चाशक सूत्र' में उपरोक्त स्वरूप मिलता है लेकिन साथ में ही 'धर्मसंग्रहणी' में रात्रिभोजन त्याग व्रत की सार्थकता भी बताई गई है यह इस प्रकार - रातीभोजणविरति दिट्ठादिट्ठफला सुहा चेव। दिट्ठमिह जरणमादी इतरं हिंसाणिवित्ती // 276 रात्रिभोजन की विरति (न्याग) दृश्य अथवा अदृश्य फल वाली हो फिर भी वह शुभ ही माननी चाहिए। लोक में रढतण्ठत्यक्ष यह दिखता है कि रात्रिभोजन त्याग में किया हुआ भोजन-जीर्ण-पचन आदि फलवाला है तथा हिंसा की निवृत्ति यह अदृष्ट फल है। क्योंकि रात्रिभोजन में अवश्य हिंसा होती है। आगम का भी कथन है कि ऐसे त्रस और स्थावर सूक्ष्म जीव होते हैं, जिसको रात्रि में देख नहीं सकते तो कैसे ऐषणीय गोचरी वापरे ? तथा पाणी से आई और बीज से संसक्त तथा पृथ्वी पर गिरे हुए जीवों की दिन में जयणा होती है लेकिन रात्रि में कैसे हो, उसी से रात्रि भोजन के त्याग में हिंसा की निवृत्ति होती है। इस व्रत का भी निर्दोष पालन हेतु अतिचारों को जानना एवं परित्याग करना आवश्यक है। छट्टम्मि दिआगहिअं दिअभु एवमाइ चउभंगो। अइआरो पन्नत्तो धीरेहि अणंत नाणीहिं / / 277 छट्टे व्रत में चर्तुभंगी है 1) दिन में लाया हुआ दूसरे दिन खाना, दिन में लाया हुआ रात में खाना, रात में लाया हुआ रात्रि में खाना, रात्रि में लाया हुआ दिन में खाना ये चारों भांगे दुष्ट परिणाम होने के कारण अतिचार लगते है ऐसा धीर अनंतज्ञानी भगवंतो ने कहा है। ___ अस्तु निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते है कि जैन धर्म में अहिंसा का बहुत ही सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। विश्व के अन्य विचारकों ने पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु आदि में जहाँ जीव नहीं माने है वहाँ जैन वाङ्मय में उनमें जीव मानकर उनके विविध भेद प्रभेदों का विस्तार से विवेचन किया है। श्रमण विश्व में जितने भी त्रस स्थावर जीव है उनकी हिंसा न करता, न करवाता और न हिंसा करने वालो की अनुमोदना करता है। हिंसा से और दूसरों को नष्ट करने के संकल्प से उस प्राणी को तो पीडा पहुँचती ही है साथ स्वयं के आत्मगुणों का भी नाश होता है। आत्मा कर्मों से मलिन बनती है। यही कारण है कि प्रश्नव्याकरण' में हिंसा का एक नाम 'गुणविराधिका' मिलता है संयमी तीन करण और तीन योग से किसी जीव की हिंसा नहीं करता है संयमी स्व और पर दोनों ही प्रकार की हिंसा से विमुक्त होता है क्रोध, मान, माया, लोभ, काम, मोह आदि आन्तरिक दूषित प्रवृत्तियों के द्वारा आत्मा के स्वगुणों का घात करना स्वहिंसा और अन्य प्राणियों को कष्ट पहुँचाना पर हिंसा है। श्रमण स्व और पर दोनों हिंसा का त्याग करता है। श्रमण मन-वचन और काया तथा कृत, कारित और अनुमोदन की नवकोटियों सहित असत्य का [आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIII चतुर्थ अध्याय | 296