Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ यह संयम सत्तरह प्रकार का समवायांग सूत्र में बताया गया है सत्तरसविहे संजमे पण्णत्ते, तं जहा पुढवीकायसंजमे, बेइंदिय संजमे, तेइंदियसंजमे, चउरिंदियसंजमे, पंचिंदियसंजमे, अजीव काय संजमे, पेहा संजमे, उवेहा संजमे, अवहट्टसंजमे, पमज्जणासंजमे, मणसंजमे, वइसंजमे कायसंजमे।३०३ पुढवीदग अगणिमारूयवणस्सई बिति चउ पणिंदि अज्जीवे। पेहोपेहपमज्जण परिट्ठवण मणोवई काए।३०४ पृथ्वीकायसंयम, अप्कायसंयम, तेउकायसंयम, वाउकायसंयम, वनस्पतिकाय संयम, बेइन्द्रिय संयम, तेइन्द्रिय संयम, चउरिन्द्रियसंयम, पंचिंदिय संयम, अजीवसंयम, प्रेक्षासंयम, उपेक्षासंयम, अपहृत्य संयम, प्रमार्जना संयम, मनसंयम, वचनसंयम, कायासंयम। पृथिवीकाय आदि विषयों की अपेक्षा से संयम के भी सत्तरह भेद है। इन विषयों से मन वचन को विरत रखना चाहिए। पृथिवीकायजीव की विराधना हो ऐसा विचार न करना और न उसके समर्थक वचन बोलना तथा जिससे विराधना हो ऐसी शरीर की चेष्टा न करना अर्थात् सभी प्रकार से उनकी रक्षा करना पृथिवीकाय संयम है इसी प्रकार पंचेन्द्रिय पर्यन्त सभी जीवों के विषय में समझना। जो इन्द्रयों के द्वारा दिखते है उसे प्रेक्ष्य कहते हैं। ऐसे पदार्थ के विषय में देखकर ही ग्रहण करने आदि की प्रवृत्ति करना प्रेक्षासंयम है। देश काल के अनुकुल विधान के ज्ञाता शरीर से ममत्व का परित्याग कर गुप्तियों के पालन में प्रवृत्ति करना वाले साधु के राग द्वेष परिणामो का न होना उपेक्षासंयम / अथवा पार्श्वस्था और गृहस्थ के व्यापार के प्रति उपेक्षा करना उपेक्षा संयम। प्रासुक वसति का आहार आदि बाह्य साधनों के ग्रहण करने को अथवा शुद्ध्यष्टक आदि के पालन करने को अपहृत्य संयम कहते है। शोधनीय पदार्थों को शोधकर ही ग्रहण करना प्रमार्जनासंयम अथवा स्थंडिल भूमि की प्रमार्जना वस्त्र-पात्र लेते रखते पूंजना तथा विहार तथा प्रवेश में सागारिक उपस्थिति में अप्रमार्जना और अनुपस्थिति में प्रमार्जना आदि प्रमार्जनासंयम है। इसी प्रकार मन-वचन और काया की आगमानुसार प्रवृत्ति करने और उसके विरुद्ध उपयोग न करने को क्रम से मनसंयम, वचनसंयम और कायासंयम कहा जाता है। तत्त्वार्थभाष्य'३०५ और विंशतिविंशिका' 306 में इसी प्रकार संयम के सत्रह भेद बताये है लेकिन 'समवायांग' और तत्त्वार्थ-भाष्य में (13) अपहृत्य और (14) प्रमार्जना संयम बताया है, जबकि दशवैकालिक नियुक्ति में और ‘विंशतिविंशिका' में (13) प्रमार्जना और (14) पारिष्ठापनिकासंयम बताया गया है। तथा 'संबोध प्रकरण'३०७ में भी ऐसा ही बताया है। इन सत्रह भेदों के सिवाय दूसरे भी संयम के सत्रह भेद आचार्य हरिभद्रसूरि ‘संबोध प्रकरण' एवं 'विंशतिविशिका' में बताये है वे इस प्रकार है। पंचमहञ्चयवरणं कषायचऊ पंचइंदियनिरोहो। गुत्तिीय व संजम सत्तरस भेया हवा बिंति // 208 आसवारनिरोहो जमिंदियकषायदंडनिग्गहो। आचार्य हरिभद्रपुर का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI A चतुर्थ अध्याय -300 III