Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ निष्कर्ष अस्तु निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते है कि आचार मीसांसा सत्य मर्यादित विनयशील जीवन बनाने की कलात्मक विचारश्रेणी एवं धैर्यवान् गंभीर बनने की अनुपम महानिधि है / जो प्रत्येक माननीय महापुरुषों के लिए आदरणीय बनी है। आचार्य हरिभद्र वैदिक परंपरा से संलग्न होने के नाते जन्म जात आचारों से जुड़े हुए थे वैदिक परंपरा में जीते हुए भी आचारों का कठोरता से पालन कर रहे थे। लेकिन उन आचारों से वे तृप्त नहीं हुए जब उनको 'याकिनी महत्तरा साध्वी के आचारों का परिचय हुआ तब उन्होंने भी उन आचारों की प्राप्ति के लिए स्वयं को तैयार कर लिया और उन जैन दर्शन के कठोर आचारों को स्वीकृत करने हेतु कदम को आगे बढ़ा दिया यह उनकी ज्ञानप्रियता आचारशीलता को भी प्रगट करती है। स्वयं अनेक आचारों के ज्ञाता बने साथ ही पालक भी बने / आचार में स्खलना करने पर प्रायश्चित का भागी बनता है। आचार्य हरिभद्रसूरि इतने महान् होते हुए भी उनके जीवन में शिष्य मृत्यके भयंकर आघात के कारण आचार स्खलना की घटना घटी जो कि संयम जीवन के लिए अत्यंत विपरीत थी लेकिन गुरू के उपदेश से तुरन्त भान में आ जाते है और प्रायश्चित ग्रहण कर लेते है। प्रायश्चित के रूप में उन्होंने जो आचार विषयक ग्रंथ लिखे है वो आचार्य हरिभद्रसूरि की आचार महत्ता को विशेष रूप में प्रगट करते है। यह उनके यतिदिनचर्या, . दशवैकालिक टीका, श्रावकधर्मविधि प्रकरण आदि ग्रन्थों से ज्ञात होता है। जैन वाङ्मय में अनेक आचार्यों ने 'आचार' के उपर ग्रन्थ, टीकाएँ, वृत्तियाँ आदि लिखी है उसमें आचार्य हरिभद्र का अपना अनूठा अग्रण्य स्थान है। आचार्य हरिभद्रसूरि आचार संहिता के पुरोगामी बनकर आचार को पुरस्सर बनाने का प्रयास किया है। आचार्य हरिभद्रसूरिने जितने आचार - विषयक ग्रन्थ लिखे उतने शायद ही अन्य जैनाचार्य ने लिखे होंगे। वे आचार विषयक ग्रन्थों की जो धरोहर छोड़कर गये...इसके लिए सम्पूर्ण विद्वत् समाज गौरव का अनुभव कर रहा है। आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI I I चतुर्थ अध्याय 310)