________________ गृद्ध न हो, मोहित न हो, अत्यंत आसक्ति न करे तथा नहीं राग-द्वेष करे। जो आसक्त बनता अथवा रागद्वेष करता है वह चारित्र को नाश करता है, शांति का भंग करता है एवं केवलिप्ररूपित धर्म से भ्रष्ट होता है। . 2. चक्षु से जीव प्रिय-अप्रिय सभी प्रकार के रूपों को देखता है। किन्तु साधु प्रिय-अप्रिय रूपो में आसक्त बनकर तथा राग-द्वेष भाव करके अपने आत्म भाव को नष्ट न करे। ऐसा करने पर चारित्र को भ्रष्ट करता 3. नासिका से जीव मनोज्ञ सभी प्रकार के गन्ध को सूंघता है। किन्तु प्रबुद्ध भिक्षु उन पर आसक्त नहीं होता है। 4. जिह्वा से जीव मनोज्ञ अमनोज्ञ सभी प्रकार के रसों का आस्वादन करता है किन्तु उनके प्रति रागद्वेष करके अपने आत्म भाव का विघात नहीं करना / यह चौथी भावना है। 5. स्पर्शेन्द्रिय से जीव मनोज्ञ अमनोज्ञ स्पर्शों का अनुभव करता है किन्तु भिक्षु उन मनोज्ञ - अमनोज्ञ स्पर्शों में न आसक्त हो, न ही उनमें राग-द्वेष करके अपने आत्म भाव का नाश करे। यदि उसमें रागादि भाव करता है तो धर्म से भ्रष्ट होता है / 264 'तत्त्वार्थ' टीका में भी पाँच भावनाएँ, पांचवे महाव्रत की बताई है लेकिन ‘आचारांगसूत्र' के क्रम से इसका क्रम कुछ भिन्न है इसमें “स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दानां' 265 इस क्रम से ली है। पाँच महाव्रतों का वर्णन आचारांगसूत्र' सूत्र के क्रम से ही ‘दशवैकालिक' 266 एवं पक्खिसूत्र२६७ में मिलता है। लेकिन आचार्य हरिभद्रसूरि ने आगमसूत्र का अनुसरण करके सामान्य एवं संक्षेप रूप में धर्मसंग्रहणी२६८ पञ्चाशक२६९ एवं संबोध प्रकरण२७० में वर्णन किया है। साथ में पाँच अतिचारों का भी वर्णन किया है। धर्मसंग्रहणी एव संबोध प्रकरण में अतिचारों का वर्णन नहीं किया है। पाँच महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं का विस्तृत वर्णन ‘प्रश्नव्याकरण संवर द्वार' में भी है। यह भावनाएँ पाँच महाव्रतों की विशुद्धि तथा रक्षा के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यही कारण है कि आगमों में अन्य स्थानों पर भी इन भावनाओं का उल्लेख किया गया है जैसे कि समवायांग,२७१ स्थानांगसूत्र, 272 उत्तराध्ययनसूत्र 273 आदि में कुछ नाम भेद के साथ वर्णन मिलता है। भावना के विषय में आचार्य हरिभद्रसूरि ने संबोधप्रकरण' में लिखा है कि “हमेशा पाँच महाव्रत की भावनाओं को धारण करे वह उपाध्याय के 25 गुण है तथा अशुभ भावनाओं का स्वयं त्याग करे और दूसरों को त्याग करावे वे भी उपध्याय के 25 गुण है।२७४ पाँच महाव्रत मूलगुण माने गये है उसी प्रकार छट्ठा रात्रिभोजन विरमणव्रत भी मूलगुण में गिना गया है जिसका वर्णन आचार्य हरिभद्रसूरि ने पञ्चवस्तुक ग्रन्थ' में इस प्रकार किया है। आसणाइभे अभिन्नस्साहारस्स चउव्विस्सावि। णिसि सव्वहा विरमणं चरमो समणाण मूलगुणो॥२७५ | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIII चतुर्थ अध्याय 295)