Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ इस प्रकार के मृषावाद से स्वपरोपकार अत्यंत असिद्ध होता है ऐसा ज्ञात कर प्राज्ञजनों को अपने निंदा में कारण बनने वाले मृषावाद का भी त्याग करना चहिए।२३५ . तथा हरिभद्रसूरि ने उपरोक्त कथन को तो मृषावाद कहा ही है लेकिन उन्होंने कुछ विशेष प्रयोगों को भी मृषावाद कहा है जैसे कि विवक्षित कार्य कल अवश्य होगा ही। 'मैं कल यह कार्य अवश्य करूँगा ही' ऐसा वाक्य प्रयोग भी मृषावाद बनाता है। एतं होहिति कल्लं नियमेण अहे च णं करिस्सामि। * एमादीवि न वच्चं सच्चपइ:नण जइणा उ॥ सत्य प्रतिज्ञावंत साधुओं के ‘विवक्षित कार्य कल अवश्य होगा ही' अथवा मैं कल यह कार्य अवश्य करूँगा ही / ऐसे वाक्य प्रयोग नहीं करने चाहिए क्योंकि उसमें प्रतिज्ञा भंग होने की संभावना है। क्योंकि सम्पूर्ण जीवलोक समीपवर्ती अनेक विघ्नों से भरपूर है कभी कभी विघ्न आ सकता है इसलिए मैं ऐसा ही करूँगा ऐसा ही होगा ऐसा एकान्त वाक्य प्रयोग योग्य नही है। लेकिन ऐसा हो भी सकता है अथवा न भी हो” ऐसा अनेकान्त प्रयोग ही करना योग्य है। इस प्रकार एवकार (एकान्त) भाषण भी मृषावाद बनता है। . साथ में यह भी कहा है - यदि सत्य वचन भी अन्य को पीडा देनेवाला हो तो वह मृषावाद कहलाता है। भावणा तहाभावेण काणमादीसु जा गिरा तत्था। तेसिं दुक्खनिमित्तिं सवि अलिया विणिद्दिट्ठा // काणा बहरा पंगु आदि को तू काणा है तू अंधा है ऐसा कहना उस व्यक्ति को दुःख का कारण बनने के कारण यद्यपि सत्य है फिर भी वे मृषावाद कहलायेंगे क्योंकि ऐसे वचन सुनकर उनको बहुत दुःख होता है। अत: ऐसे सत्यवचन भी नहीं बोलने चाहिए / 226 आ. हेमचन्द्रसूरि ने भी योगशास्त्र में कहा है। सत्यमपि न भाषेत परपीडा करं वचः / 237 - दूसरे को पीडा करने वाले सत्यवचन भी न बोले / लेकिन अंधे को 'प्रज्ञाचक्षु' तथा मूर्ख को देवानांप्रिय' इत्यादि कहना चाहिए। इस प्रकार भाषाप्रयोग एकान्त रूप हो। दूसरों को पीडा पहुँचाने वाला हो सुनने वाले के हृदय को आनंदकारी न हो वह सभी मृषावाद के अन्तर्गत आता है। दूसरे महाव्रत के अतिचार पञ्चवस्तुक में इस प्रकार बताये हैबिइअम्मि मुसावाए सो सुहमो बायरो उ नायव्वो। पयलाइ होइ पढमों कोहादभिभासणं बिइओ॥२३८ दूसरे महाव्रत में सूक्ष्म और बादर दो प्रकार के अतिचार है। क्रोधादि से असत्य बोलना स्थूल मृषावाद है। कारण कि परिणाम में भेद है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIII चतुर्थ अध्याय | 287 ]