________________ [ प्रथम महाव्रत प्रथम महाव्रत का स्वरूप आचारांग में इस प्रकार मिलता है। पढमं भंते ! महव्वयं पच्चक्खामि सव्वं पाणाइवायं / से सुहुमं वा बायर वा तसं वा थावरं वा णेव सयं पाणइवायं करेजा जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणसा, वयसा, कायसा। तस्स भंते / पडिक्कमामि निन्दामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि / 225 ___ प्रथम महाव्रत के विषय में मुनि प्रतिज्ञा ग्रहण करता है कि भंते ! मैं प्रथम महाव्रत में सम्पूर्ण और त्रसस्थावर समस्त जीवों का न तो स्वंय प्राणातिपात करूँगा न दूसरों से कराऊँगा और न प्राणातिपात करने वालों का अनुमोदन करूँगा, इस प्रकार मैं यावज्जीवन तीन करण से एवं मन वचन काया तीन योगों से इस पाप से निवृत्त होता हूँ। हे भगवान्। मैं उन पूर्वकृतं पापों का प्रतिक्रमण करता हूँ / आत्म साक्षी में निन्दा करता हूँ। तथा गुरु साक्षी से गर्दा करता हूँ अपनी आत्मा से पाप का व्युत्सर्ग करता हूँ। महाव्रतों को ग्रहण करने वाला व्रती सम्पूर्ण रूप से जीवों के प्राणों का अतिपात नहीं करते है चाहे वे सूक्ष्म, स्थूल हो या त्रस, स्थावर हो किसी जीव की विराधना नहीं करता है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने 'पञ्चवस्तुक' सूत्र में उपरोक्त कथन का तो प्रतिपादन किया ही है। साथ ही गाथा में तथा 'टीका' में विशेषता भी स्पष्ट की है वह इस प्रकार है पाणाइवायविरमणमाई णिसिभत्तविरइ पशता। . समणाणं मूलगुणा पन्नता वीअरागेहिं। सुहुमाई जीवाणं, सव्वेसि सव्वहा सुपणिहाणं। पाणाइवायविरमणमिह पढमो होइ मूलगुणो॥२२६ / / जिनेश्वर भगवंतो ने प्राणातिपातविरमण से लेकर रात्रिभोजन विरमणव्रत तक साधु के व्रत कहे है और वे व्रत मूलगुण है। जैनशासन में सूक्ष्म बादर आदि सभी जीवों का प्राणातिपात करना, कराना आदि सभी प्रकार से दृढ मानसिक उपयोग पूर्वक विरत बनना ही प्रथम गुणव्रत है तथा टीका में आचार्य हरिभद्र ने यह विशेष बात कही कि यहाँ प्रथम इस व्रत को इसलिए रखा क्योंकि जहाँ तक हिंसा से आत्मा विरत नहीं बनता वहाँ तक वह दूसरे व्रतों के पालन में भी समर्थ नहीं बन सकता है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने 'धर्मसंग्रहणी' में प्रथम महाव्रत का यही स्वरूप बताया है लेकिन साथ में उस व्रत को निर्विवाद निष्पक्ष उत्तम बताने के लिए अनेक आक्षेप एवं परिहारों को भी निर्दिष्ट किये है जैसे कि वैदिक परंपरा की यह मान्यता है कि हिंसा त्याज्य तो है लेकिन वेदविहित हिंसा विशेष संस्कारों से संस्कारित होने के कारण त्याज्य नहीं है जिस प्रकार लोक में हम देखते है कि लोहे का गोला पानी में डूबने का स्वभाव वाला है फिर भी उसे संस्कारित करके पतरा का आकार दिया जाय तो वह तैर सकता है। विष मारने का स्वभाव वाला है फिर भी उसे मन्त्र औषधी से संस्कारित किया जाने पर कोढ रोग आदि को दूर करता है। इसी प्रकार अग्नि जलाने के स्वभाववाली है फिर भी सत्यवचन शील तप आदि के प्रभाव से नहीं जलाती है उसी प्रकार वेदविहित | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIII चतुर्थ अध्याय | 283