Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ घर रहित वह अगार / व्रत अर्थात् पाखंड और वही जिसको है वह पाखंडी / तप में जो विचरता है वह चरक (मुनि) तप जो करता है वह तापस, भिक्षा का आचार अत:भिक्षु अथवा आठ कर्मको भेदता है अत: भिक्षु / पापों का परित्याग करने से परिव्राजक , श्रमण का अर्थ पूर्वोक्तहै। बाह्म और अभ्यंतर परिग्रह से निर्गत अत: निग्रंथ है। अहिंसा आदि एकाग्र भाव से उद्यम करने से संयत, तथा बाह्म और आभ्यंतर ग्रंथ से मुक्त वह निर्लोभी (मुक्त) कहलाता है / 296 अन्यदर्शनकारों के शास्त्र श्रीमद् भगवद्गीता आदि में श्रमण का ऐसा स्वरूप कहा है वहाँ 'गुणातीत' शब्द का प्रयोग किया गया है। समसुखदुःखः स्वस्थः समलेष्टाश्मकाञ्चनः / तुल्यप्रियाऽप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः॥ मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः। सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते // 217 जो आत्मा सुख तथा दुख दोनों अवस्था में स्वस्थ रहता है पत्थर (उपल) तथा स्वर्ण दोनों पर समान भाव होता है पत्थर को देखकर उपेक्षा नहीं करता और स्वर्ण को देखकर आकर्षित नहीं बनता है। इष्ट (प्रिय) और अनिष्ट (अप्रिय) दोनों पर तुल्यवृत्ति रखता है। इष्ट को देखकर राग नहीं करता और अनिष्ट को देखकर द्वेष नहीं करता है। निन्दा एवं आत्म प्रशंसा में धीर बनकर रहता है अर्थात् दोनों स्थानों में समान धैर्यता को धारण . करता है। मान और अपमान में तथा मित्र एवं शत्रु पक्ष दोनों में तुल्यमनोवृत्ति रखता है। सभी प्रकार के आरम्भ परिग्रही के त्यागी होता है। वही गुणतीत कहा जाता है। ..तथा प्रश्न व्याकरण में ‘समण' शब्द को इस प्रकार ग्रंथित किया है। __ “से संजते विमुत्ते निस्संगे निप्परिग्गहरुई निम्ममे निन्नेह बंधणे सव्वपावविरए, वासीचंदणसमाणकप्पे, समतिणमणि, मुत्ता ले? कंचणे, समे य माणावमाणए, समियरए, समितरागदोसे, समिए समितीसु, सम्मदिट्ठी * समे य जे सव्वपाणभूतेसु, से हु ‘समणे' सुयधारए उज्जुए संजए”।२१८.. _अर्थ प्रायः उपरोक्त व्याख्याओं में आ जाने के कारण पुन: नहीं लिखा जा रहा, इस प्रकार ‘श्रमण' को उजागर करने के पश्चात् पाँच महाव्रतों का निरूपण किया जा रहा है। वे इस प्रकार है____ पाँच महाव्रत-पाँच महाव्रत के बारे में जैन आगम ग्रंथ में भेद मिलता है जैसे कि आगम से उद्धरित कल्पसूत्र वालावबोध में महाव्रतों के भेदों के बारे में इस प्रकार वर्णित है। प्राणातिपातादिक विरमणरूप पाँच महाव्रत है अर्थात् कि प्राणतिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह इन पाँचो से विरत होना पाँच महाव्रत कहे जाते है। इसमें श्री आदिनाथ तथा श्री महावीर स्वामी के साधु साध्वी को तो वैसे ज्ञान का अभाव होने से पाँच महाव्रत व्यवहार से है और मध्य के बावीस जिन के समय के साधु तो परिग्रह व्रत में परिगृहित स्त्रीभोग का पच्चक्खाण जानते है तथा तीसरे अदत्तादान व्रत में अपरिगृहीत [आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / IIINA चतुर्थ अध्याय 281