Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ * श्री ‘दशवैकालिकसूत्र' के नियुक्तिकार श्री भद्रबाहु स्वामी ने नियुक्ति गाथाओं में समण शब्द को इस प्रकार ग्रंथित किया है। जह मम न पियं दुक्खं जाणि य समेव सव्व जीवाणं। न हणइ न हणावेइय सम मणईतेण सो समणो॥ नत्थि य सि कोइ वेसो, पिओ व सव्वेसु चेव जीवेसु। एसण होइ समणो एसो अन्नोऽवि पज्जाओ। तो समणो जइ सुमणो, भावेण य जइ न होइ पावमणो। सयणे य जणेय समो, य माणवमाणणेसु॥ उरगगिरिजलण सागर, नहयलतरुगणसमो य जो होई। भमरमिगधरणिजलरुह, रविपवणसमो जओ समणो।२०८ आचार्य हरिभद्रसूरि ने दशवैकालिक बृहद्वृत्ति' में इन नियुक्ति गाथाओं का विवेचन तात्त्विक शैली से किया है वह क्रमश: इस प्रकार है। जिस प्रकार मुझे दुःख प्रतिकूल होने से अच्छा नहीं लगता उसी प्रकार सभी जीवों को दुःख प्रतिकूल ही लगता है / ऐसा चिन्तन करके किसी जीव को स्वयं न मारे, दूसरों के पास न मरावे तथा मारने वालों की न अनुमोदना करे, इस प्रकार सम+अण समान गिनने से ‘समण' कहलाता है। तथा साधुओं को सभी के ऊपर तुल्यमन होने से न किसी पर द्वेष और न किसी पर राग होता है उससे सममन (समान मन) वाले होने से श्रमण शब्द यह दूसरा पर्याय हुआ। * श्रमण जो सुमन वह द्रव्य मन से तो सुंदर मनवाला होता ही है साथ में भाव से भी सुंदर मनवाला होता है लेकिन पापकारी मनवाला नहीं होना चाहिए तभी वह श्रमण कहलायेगा अर्थात् स्वजन सम्बन्धी पर जैसा प्रेम रखता है वैसा ही सभी जीवों पर प्रेम रखे तथा मान अपमान में सुमन रखता है। प्राकारान्तर से साधु के स्वरूप को बताते हुए कहते है कि उरग - अर्थात स्वयं अपना घर नहीं बनाता . लेकिन चूहे के बनाये हुए बिल में रहता है उसी प्रकार श्रमण भी अपने लिए मकान नहीं बनाता है। ____ गिरि-वर्षा गरमी और सर्दी में पर्वत हमेशा एक समान रहता है उसी प्रकार श्रमण भी परिषह और उपसर्गो में समान रहते है। ज्वलन तपश्चर्या रूपी अग्नि से देदीप्यमान रहते है तथा जिस प्रकार अग्नि तृण काष्ठ आदि से अतृप्त रहती है वैसे ही मुनि सूत्रार्थ से अतृप्त रहता है। सागर के समान गंभीर होने के कारण ज्ञानादिरत्न प्रधान मुनि संयम की मर्यादा को स्वप्न में भी नही छोड़ता। आकाश के समान आलंबन रहित होता है। तरुगण के समान सुख दुख में भी अपनी मानसिक व्यथा को प्रदर्शित नहीं करता है। भ्रमर के समान एक स्थान में नहीं रहता है। मृग के समान संसार के भयस्थानों से उद्विग्न रहता है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIMA चतुर्थ अध्याय [ 279)