Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ करेमि भंते / सामाइयं सावजं जोगं पच्चक्खामि जाव साहूं पज्जुवासामि दुविहं तिविहेणं “इत्याधुच्चारणतः तत इर्यापथिकायाः प्रतिक्रामति पश्चादालोच्य वन्दते आचार्यादीन्। साधुओको नमस्कार करके करेमि भंते सूत्रका पाठ बोलकर सामायिक करे पछी इरियावही करी गमणागमणे आलोवीने (रस्ता मां लागेला दोषोनी आलोचना करीने) आचार्य आदिने वंदन करे / (राजशेखर म.सा.के शब्दों में) इस प्रकार करेमि भंते के बाद इरियावहियं होती है यह इन प्रमाणों से निश्चित होता है लेकिन आज कइ गच्छों में “इरियावहियं” करके करेमि भंते पाठ बोलते है जिसका कोई शास्त्रोक्त प्रमाण अभी तक मुझे नही मिला है। उपासकदशाङ्ग में जिन अपध्यानादि चार अनर्थदण्डों का परित्याग इच्छापरिमाणव्रत के प्रसंग में कराया गया है उनका परित्याग श्रावक प्रज्ञप्ति में अनर्थदण्ड विरति के अन्तर्गत कराया गया है यह विधान इच्छापरिमाण की अपेक्षा अनर्थदण्डविरति से अधिक संगत प्रतीत होता है। तत्त्वार्थ सूत्र व भाष्य में पौषधोपवास के उन आहारपौषधादि चार भेदों का उल्लेख नही किया गया जिनका निर्देश श्रावक प्रज्ञप्ति आदि में उसके लक्षण रूप में किया गया है। इसी प्रकार दोनों ग्रन्थों में उपभोग, परिभोगपरिमाणव्रत के अतिचार में भी भिन्नता है तथा पौषधोपवास के व्रत के अतिचारों में श्रावक धर्मविधिप्रकरण तथा तत्त्वार्थ में भिन्नता है। इस प्रकार श्रावकाचार का वर्णन किया गया। श्रमणाचार श्रावकाचार का प्रतिपादन करने के पश्चात् अब श्रमणाचार का निरूपण करते है। श्रमण के जो आचार होते है वह 'श्रमणाचार' कहलाता है। अब हमें सर्वप्रथम श्रमण' को समझना होगा तत्पश्चात् उसके आचार क्रिया आदि को! जैन आगम में श्रमण शब्द के लिए अनेक शब्दों का प्रयोग हुआ जिसका विश्लेषण हम आगे करेंगे। अभी श्रमण पर विचार करेंगे। श्रमण शब्द संस्कृत है जिसका प्राकृत में समण होता है। स्थानांग में समण' शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की “समिति समतया शत्रुमित्रादिषु अणति प्रवर्तते इति समण / प्राकृततया सर्वत्र समण त्ति।' 206 जो शत्रु एवं मित्र के प्रति समभाव पूर्वक रहता है उसे समण कहते है। प्राकृत होने से सभी स्थानों में समण प्रयोग मिलता है। 'अण' धातु अनेकार्थक होने के कारण निरुक्ति के वश से भगवतिसूत्र' में इसका अर्थ सभी स्थानों पर तुल्य मनोवृत्ति समान बुद्धि रखना ऐसा किया है।२०७ | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIA चतुर्थ अध्याय | 278 )