________________ है। आरम्भ से अभिप्राय खेती आदि कार्यों का है। इस प्रकार गृह में स्थित रहते हुए श्रावक उस आरम्भ को नहीं छोड़ सकता है, अत: उसके आरम्भजनित हिंसा का होना अनिवार्य है। यह अवश्य है कि आरम्भकार्य को करते हुए भी वह उसे सावधानी के साथ करता है तथा निरर्थक आरम्भ से भी बचता है, पर संकल्प पूर्वक वह कभी प्राणविघात नहीं करता इस प्रकार वह स्थूल प्राणविरति अणुव्रत सुरक्षित रहता है। यह व्रत गुरूदेव के समीप ही शास्त्रोक्त विधि से लेना चाहिए। तभी उसका महत्त्व बढ़ता है। व्रत का इच्छुक श्रावक मोक्षसुख की इच्छा से गुरु के पादमूल में उपयोग से सावधान होकर नियत काल चातुर्मास आदि के लिए अथवा जीवन पर्यन्त स्वीकृत व्रत का प्रतिदिन स्मरण करता हुआ पालन करता है। व्रत का पूर्णतया सम्यग परिपालन तभी संभव है जबकि उसके अतिचारों को जानकर उनका प्रयत्न पूर्वक परित्याग होगा। स्वीकृत व्रत का देश से भंग होना ही अतिचार है। यहाँ एक शंका उत्पन्न होती है कि देश से भंग यानि अतिचार लेकिन यह बात देशविरति में नहीं घटती है क्योंकि व्रत ही देशविरति रूप में स्वीकारा है। अर्थात् देश से व्रत ही पालन करना है / अब उसमें देश से व्रत का भंग हो जायेगा तो बचेगा क्या? अर्थात् सर्वथा उस व्रत का भंग हो गया तो उसमें (देशविरति) अतिचार कैसे घटेंगे ? इसी बात को लेकर आचार्य श्री हरिभद्रसूरि कृत पंचाशक सूत्र जिस पर आचार्य अभयदेवसूरि ने टीका की रचना की है उसमें उन्होंने आवश्यक नियुक्ति' की साक्षी देकर कहा है कि “सभी अतिचार संज्वलन कषाय के उदय से होते है बारह कषाय के उदय से मूल से नाश होते है। जैसे कि सव्वे वि य अइयारा, संजलणाणं तु उदयओ होति। _ मूलच्छेज्जं पुण होइ बारसण्हं कसायाणं // 70 अर्थात् देशविरति में अतिचार नहीं होते है युक्ति से भी यह बात घटती है, वह इस प्रकार स्थूल (बड़े) शरीर में चाँदी आदि रोग होते है कुंथुआ आदि छोटे शरीर में नहीं। उसी प्रकार देश विरति के व्रत अनेक अपवादों से अतिशय छोटे है। अतिचार चाँदी आदि रोगो के समान है इसी से अतिचार देशविरति में नहीं होते है। अतिचार यानि देश से भंग अणुव्रतों स्वयं महाव्रतों के अतिशय अंश रूप होने से उसका अंश से भंग अर्थात् संपूर्ण नाश। जैसे कि कुंथुआ का शरीर इतना छोटा होता है कि उसका पंख आदि आंशिक भंग नहीं होता है किन्तु संपूर्ण नाश होता है। महाव्रतों में अतिचार होते है कारण कि वे बड़े है जैसे कि हाथी का शरीर बड़ा होने से उसमें चाँदी आदि रोग होते है उसी प्रकार महाव्रत बड़े होने से चाँदी आदि रोग रूप अतिचार होते है। . इस शंका का समाधान करते हुए कहते है कि शास्त्रों में अणुव्रत के अतिचार सम्पूर्ण भंग से भिन्न रूप में सम्मत है। जैसे कि जयरिसओ जइभेओ जह जायइ जह य तत्थ दोसगुणा। जयणा जह अइयारा भंगो तह भावणा णेया॥७१ इस गाथा में व्रत के सर्वथा भंग से अतिचार भिन्न होते है यह बताया है, यह गाथा पूर्वान्तर्गत है / ऐसा [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII र चतुर्थ अध्याय 257