Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ आदि में किया है। सामान्य ऋद्धिवाला श्रावक चैत्यगृह में, साधु के समीप में, घर में, पौषधशाला आदि में सामायिक करे। इसमें वह साधु के समीप करता है तो वह भय से रहित पाँच समिति और तीन गुप्ति का पालन करता हुआ साधु के पास जाकर तीन योग से साधु को नमस्कार करे तत्पश्चात् सामायिक करे वह इस प्रकार “करेमि भंते सामाइयं सावजं जोगं पच्चक्खामि दुविहं तिविहेणं जाव साहु पज्जुवासामिति काऊण पच्छा इरियावहियं पडिक्कमइ।” हे भगवान् ! मैं सामायिक करता है। दो प्रकार के सावध योग का, तीन प्रकार से प्रत्याख्यान करता है ऐसा करके पश्चात् ईर्यापथका प्रतिक्रमण करता है, पश्चात् आलोचना करके ज्येष्ठता के क्रम से फिर से गुरु की वन्दना करके प्रतिलेखना पूर्वक बैठकर पूछे व पढ़े। इसी प्रकार का पाठ पञ्चाशक की टीका, श्रावक धर्मविधि प्रकरण आदि में भी मिलता है। ___ ऋद्धिमंत श्रावक घोड़ा और हाथी आदी के परिकर से अधिकरण बढ़ाता है अत: उस समय आकर सामायिक न करे सामायिक करके ही आवे, करके न आवे, और वहाँ आकर करे तो उपरोक्त विधि के अनुसार करे। विशेष में वह अपना मुकुट, कुण्डल, पुष्प, पान वस्त्र आदि को दूर कर देता है। यह सामायिक विधि है। सामयिक में श्रावक साधु के समान होता है फिर भी सर्वथा समान नहीं होता है उनमें कुछ भिन्नता भी होती है / जैसे कि उपपात, स्थिति, गति, कषाय, बन्ध, वेदना, प्रतिपत्ति और अतिक्रम, इन सबके द्वारा उक्त साधु और श्रावक इन दोनों में भेद भी किया जाता है। उदाहरण के रूप में यह कहा जाता है कि यह तालाब तो समुद्र के समान है तब उसे स्वयं समुद्र न समझकर यही समझा जाता है कि वह समुद्र के समान गम्भीर व विस्तृत है इसी प्रकार प्रकृत में श्रावक को साधु के समान कहने का यही अभिप्राय है कि वह स्वयं साधु न होकर सामायिक काल में सावद्ययोग का त्याग कर देने के कारण साधु जैसा है। इस प्रकार इस गाथासूत्र से भी श्रावक और साधु में भेद सिद्ध है।१६९ / इस प्रकार आचार्य हरिभद्रसूरि ने जितना विस्तार से प्रथमशिक्षाव्रत का वर्णन किया है। उतना उपासकदशाङ्ग सूत्र में नहीं मिलता है। इस व्रत का सुंदर एवं सुचारू रूप से परिपालन करने अतिचारों को जानना एवं त्यागना अत्यावश्यक है। वे इस प्रकार है। मण वयण कायदुप्पणिहाणं सामाइयम्मि वज्जिज्जा। सइअकरणयं अणवट्ठियस्स तह करणयं चेव // 170 मनका दुष्प्रणिधान, वचन का दुष्प्रणिधान, काय का दुष्प्रणिधान, स्मृति की अकरणता और अनवस्थित सामायिक करना, ये सामायिक को दूषित करने वाले उसके अतिचार है उनका परित्याग करना चाहिए। मनोदुष्प्रणिधान-सामायिक में आरम्भादि विषयक सावध कार्य का चिन्तन करना। वचन दुष्प्रणिधान - सामायिक में सावध वचनों का उच्चारण करना यह दूसरा अतिचार है। [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIK II चतुर्थ अध्याय | 2717