Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ निरुक्ति के अनुसार सामायिक का अर्थ यह है कि जो राग द्वेष की परिणति से विरक्त बनकर समस्त प्राणिओं को अपने समान ही देखता है उसका नाम 'सम' है आय शब्द का अर्थ प्राप्ति' है। तदनुसार समभावी वह जीव प्रतिसमय अनुपम सुख के कारणभूत अपूर्व ज्ञान दर्शन और चारित्ररूप पर्यायों से संयुक्त होता है उसे समाय (सम आय) कहा जाता है यह 'समाय ही जिस क्रिया अनुष्ठान का प्रयोजन हो उसका नाम सामायिक है अथवा 'समाये भव समायिक' इस विग्रह के अनुसार समाय हो जाने पर जो अवस्था होती है उसे सामायिक का लक्षण समझना चाहिए।१६६ पञ्चाशक टीका में ‘सावध योग' को लेकर कुछ शंका उठायी गई है कि कुछ ऐसा मानते है कि सामायिक में जिनपूजा प्रक्षालन आदि कार्य में कोई दोष नहीं है कारण कि वे कार्य निरवद्य योग है। सावद्य योग का लक्षण इस प्रकार है - कम्मवजं जं गरहियंति कोहइणो य चत्तारि। सह तेण जो उ जोगो, पच्चक्खाणं हवइ तस्स॥ जो निंद्य कार्य होते है वे अवद्य (पाप) है, अथवा क्रोधादि चार कषाय अवद्य हैं। अवद्य से युक्त व्यापार सावध योग है। उस सावध - योग का पच्चक्खाण होता है। जिन प्रक्षालन आदि कार्य निंद्य न होने से अवद्य नहीं है जिसका समाधान इस प्रकार किया गया है। कि जिन प्रक्षालन आदि कार्य निंद्य न होने के कारण सावद्य नहीं है इस प्रकार यदि मान ले तो साधुओं को भी जिनप्रक्षालन आदि करने चाहिए / कारण कि साधु और श्रावक के लिए सावध की व्याख्या भिन्न नहीं है। और सामायिक में श्रावक को साधु के समान कहा है तो वह व्याख्या भी नहीं घटेगी। कारण कि साधु को जिन प्रक्षालन करने का अधिकार नहीं हैं। जिन प्रक्षालन शरीर को स्वच्छ बनाकर सुशोभित बनाकर करने में आते है जबकि सामायिक में विभूषा का सर्वथा त्याग किया जाता है। तथा सामायिक भावस्तव है और जिन पूजा द्रव्यस्तव है।६७ द्रव्यस्तव भावस्तव की प्राप्ति के लिए होता है इसलिए सम्बोधसित्तरि में भावस्तव को मेरुपर्वत के समान तथा द्रव्यस्तव को सरसव के दाणा के समान बताया है जैसे कि - मेरुस्स सरिसवस्स य जित्तियमित्तं तु अंतरंहोइ। दवत्थय भावत्थय अंतरमिह तित्तियं नेयं // 168 मेरुपर्वत और सरसव के दाणे में जितना अंतर होता है उतना ही अंतर द्रव्य स्तव और भावस्तव में होता है। अर्थात् द्रव्य स्तव वाले को सरसव जितना फल मिलता है तथा भाव स्तव वाले को मेरूपर्वत (1 लाख योजन ऊँचा) जितना फल मिलता है। अत: भावस्तव साधुओं के लिए कहा गयाहै। तथा शास्त्र में जिनप्रक्षालन आदि कार्य करने में दोष नहीं, ऐसा वचन कहीं दिखाई नहीं देता है लेकिन सामायिक वाला श्रावक साधु के समान होता है ऐसा वचन मिलता है। सामायिक श्रावक को किस प्रकार लेनी चाहिए / उसका वर्णन भी आचार्य हरिभद्रसूरि ने श्रावक प्रज्ञप्ति | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIII IA चतुर्थ अध्याय | 270