Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ अथवा देखे अथवा अधीरता से विसर्जन करना। 4. इसी प्रकार उक्त मल-मूत्रादि विसर्जन की भूमि को कोमल वस्त्र आदि से झाडे बिना या दुष्टता पूर्वक झाड पोंछकर वहा मल मूत्रादि को विसर्जित करना यह चौथा अतिचार है। तत्त्वार्थसूत्र तथा धर्मबिन्दु में कुछ दूसरे रूप में ये अतिचार वर्णित है / ‘अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादाननिक्षेपसंस्तारोप क्रमणानादर स्मृत्यनुपस्थापनानि / '193 अप्रत्यवेक्षित, अर्थात् दृष्टि द्वारा जिस भूमि को अच्छी तरह देखा नहीं हो और अप्रमार्जित जिसको पिच्छी आदी द्वारा प्रमार्जित नहीं की हो ऐसी भूमि पर मल मूत्रादि का परित्याग करना अप्रत्यक्षवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्ग नाम का अतिचार है। इसी प्रकार बिना देखे शोधे स्थान पर बिना देखी पूंजी वस्तु यो ही रख देना या उठा लेना अथवा पटक देना, फेकना अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जित-दाननिक्षेप नामका अतिचार है। शयनासन के आश्रयभूत स्थान को या शय्या आदि को बिना देखे पूँजे ही काम में ले लेना उस पर बैठ जाना सो जाना अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जित संस्तारोपक्रम नाम अतिचार है। पौषधोपवास में भक्तिभाव न होना अनादर नाम का अतिचार है / पर्वके दिन को भूल जाना अथवा इस दिन उपवास का याद न रहना, उस दिनके विशेष कर्तव्य को याद न रखना स्मृत्यनुप्रस्थापन नाम का पाँचवा अतिचार है। . . 4. अतिथिसंविभाग - न्यायपूर्वक अर्जित किये हुए अथवा सचित्त और देने योग्य अन्नपान आदि पदार्थों का देश काल के अनुसार श्रद्धापूर्वक सत्कार के साथ क्रम से आत्म कल्याण करने की उत्कृष्ट बुद्धि भावना से संयत साधुओं को दान करना अतिथि संविभाग कहा जाता है। आचार्य हरिभद्र अतिथिसंविभाग का व्युत्पत्ति पूर्वक अर्थ बताते हुए कहते है कि- अतिथि संविभागवत के अन्तर्गत ‘अतिथि' शब्द से अभिप्राय है कि जिन महापुरुषों ने तिथि व पर्व आदि सभी उत्सवों का परित्याग कर दिया है उन्हें अतिथि जानना चाहिए। शेष जनों को अभ्यागत कहा जाता है न कि अतिथि ऐसे संयत आहार के लिए गृहस्थ के घर पर उपस्थित होते है वे अपने निमित्त से निर्मित भोजन को कभी ग्रहण नहीं करते है, किन्तु जिसे गृहस्थ अपने उद्देश्य से तैयार करता है उस अनुद्दिष्ट भोजन को ही परिमित मात्रा में ग्रहण किया करते हैं। ऐसे अतिथि संविभाग शिक्षापद का लक्षण है। संविभाग पद से यह प्रकट है कि श्रावक यथाविधि साधु के लिए अपने भोजन में से विभाग करता है / उससे पुरातन कर्म की निर्जरा होती है। श्रावक के अतिथि साधु ही कारण है क्योंकि उन्होने तिथि पर्व आदि लौकिक व्यवहार का त्याग किया है कहा भी है - तिथिपर्वोत्सवाः सर्वे त्यक्त्वा येन महात्मना। अतिथि तं विजानीयात्छेषमभ्यागतं विदुः॥१९४ 'एत्थ सामायारी' इसके द्वारा टीका में पौषधव्रत की विधि आदि के विषय में विशेष प्रकाश डाला है। आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIA VINA चतुर्थ अध्याय | 275]