Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ . 4. पापोपदेश-खेती का समय हो गया है अत: आप खेती का कार्य प्रारंभ करो इस प्रकार दूसरो को उपदेश देना आदेश देना पापोपदेश कहलाता है।१५४ 5. अनर्थदण्ड का इसी प्रकार का विवेचन श्रावक प्रज्ञप्तिटीका,१५५ श्रावक धर्मविधि प्रकरण१५६ टीका एवं उपासक दशाङ्ग टीका५७ में भी मिलता है। इस व्रत का परिपूर्ण पालन के लिए इनके अतिचारों को जानना एवं परित्याग करना अत्यावश्यक है वे इस प्रकार है। . कंदप्पं कुक्कुइयं मोहरियं संजुयाहिगरणं च। उपभोग परीभोगाइरेयगयं चित्थ वज्जइ॥१५८ कन्दर्प, कौत्कुच्य, मौखर्य, संयुक्ताधिकरण और उपभोग - परिभोगपरिमाणातिरेकता ये पाँच अनर्थदण्डव्रत के अतिचार है जिनका परित्याग करना चाहिए। 1. कन्दर्प - रागयुक्त असभ्य हास्य के वचन बोलना, जोर जोर से हँसना आदि / 2. कौत्कुच्य - हास्य और सभ्यता शिष्टता से विरुद्ध भाषण करना तथा शरीर दूषित चेष्टाएँ करना कौत्कुच्य अतिचार है। 3. मौखर्य-विनासम्बन्ध के अति प्रचुर बोलने बड़बड़ाने को मौखर्य कहते है। 4. संयुक्ताधिकरण-जिससे आत्मा दुर्गतिगामी बनती है वह अधिकरण उदूखल, शिलारपुत्रक और . गेहूँ का यन्त्र, इनको अर्थ क्रिया के योग्य वेंट और मूसल आदि उपकरणों से जोड़कर रखना ही संयुक्ताधिकरण है। रत्नकरण्डक और सागरधर्मामृत आदि में इस अतिचार को असमीक्ष्याधिकरण नाम से निर्दिष्ट किया गया है। जिसका अभिप्राय है कि प्रयोजन का विचार न करके लकड़ी ईट व पत्थर आदि को आवश्यकता से अधिक मँगवाना या तैयार करना। 3. उपभोग परिभोगातिरेकता - उपभोग परिभोग के साधनों को आवश्यकता से अधिक मात्रा में * रखना। जैसे कि स्नान के लिए तालाब आदि पर जाते समय तेल, आँवले अधिक मात्रा में ले जाना।१५९ / / - इन अतिचारों का वर्णन उपासक - दशाङ्ग,१६० श्रावक धर्मविधि प्रकरण,१६१ धर्मबिन्दु,१६२ पञ्चाशक,१६३ तत्त्वार्थ१६४ एवं वंदितासूत्र१६५ में भी मिलता है लेकिन आचार्यहरिभद्रसूरि ने अपनी टीका में विस्तार पूर्वक विवेचन किया। तीन गुणव्रत का निरूपण करने के पश्चात् अब चार शिक्षाव्रतों की प्ररूपणा करते है / 1. सामायिक 2. देशावकाशिक 3. पौषधोपवास 4. अतिथिसंविभाग 1. सामायिक - मोक्षपद को प्राप्त करानेवाली क्रिया का नाम शिक्षा है उस शिक्षा पद को व्रत कहा जाता है। उसमें प्रथम सामायिक व्रत में कालकी मर्यादा करके उतने समय के लिए सम्पूर्ण सावध योगों का त्याग करना सामायिक है। [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII बचतुर्थ अध्याय | 269)