Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ महापुरुषों का कथन होने से प्रमाणभूत है। तथा पूर्व में साक्षी गाथा देकर सम्पूर्ण अतिचार संज्वलन के उदय से होते है ऐसा जो कहा वह सत्य है, लेकिन वह गाथा सर्वविरति की अपेक्षा से है देशविरति की अपेक्षा से नहिं ।सर्वविरति में सम्पूर्ण अतिचार संज्वलन कषाय के उदय से होते है। पूर्वोक्त “सव्वे वि य अइयारा' इत्यादि गाथा की व्याख्या इस प्रकार है। संज्वलन कषाय के उदय से मूल से भंग होते है। इस अर्थ से देशविरति के अतिचारों का अभाव नहीं होता है अथवा इस गाथा के उत्तरार्ध का अर्थ इस प्रकार भी है, कि तीसरे कषाय के उदय से सर्वविरति का दूसरे कषाय के उदय से देश विरति का और पहले कषाय के उदय से सम्यक्त्व का मूल से भंग होता है / इस अर्थ से भी देशविरति के अतिचारों का अभाव नहीं होता है। ___कषाय का उदय विचित्र है। इससे उन कषायों का उदय उस गुण की प्राप्ति में प्रतिबंधक नहीं बनता है अपितु उस गुण में अतिचार लगाते है जैसे कि संज्वलन कषाय का उदय सर्वविरति गुण की प्राप्ति में प्रतिबंधक नहीं बनता लेकिन उसमें अतिचार उत्पन्न करवाता है अर्थात् संज्वलन कषाय का उदय होता है तब सर्वविरति की प्राप्ति होती है उसमें दोष लगते है। उसी प्रकार प्रत्याख्यानावरण का उदय होता है तब देशविरति की प्राप्ति होती है और उसमें दोष लगते है / इस प्रकार अप्रत्याख्यान में सम्यक्त्व गुण की प्राप्ति और उसमें अतिचार लगते है। इस प्रकार देशविरति में अतिचारों का अभाव नहीं होता है। कुंथुआ का दृष्टांत भी असंगत है कारण कि दूसरे दृष्टांत से उसका निराकरण हो जाता है, वह इस प्रकार हाथी के शरीर से मनुष्य का शरीर बहुत छोटा है फिर भी उसमें चाँदी आदि रोग होते हैं। इस प्रकार देशविरति में भी अतिचार संभवित है, क्योंकि 'उपासक दशाङ्ग' में भी आनंद श्रावक को व्रतों के साथ अतिचारों का प्रतिपादन भी किया है वह इस प्रकार - थूलगस्स पाणाइवायवेरमणस्स तं जहा-बन्धे वहे छविच्छेए अइभारे भत्तपाणवुच्छेए।७२ स्थूल प्राणतिपात विरमण व्रत के श्रावक को पाँच अतिचार सुंदर रीति से जानने योग्य है। आचरने योग्य नहीं हैं। वे इस प्रकार बंध, वध, छविच्छेद, अतिभार, भत्तपाणवुच्छेए। इस प्रकार आगमोक्त होने के कारण अतिचार प्रमाणभूत है इसी से आचार्य हरिभद्रसूरि ने इन अतिचारों को ‘धर्मबिन्दु' ‘पञ्चाशक' 'श्रावक प्रज्ञप्ति' में बताया है। बन्ध वधच्छविच्छेदातिभारारोपणानपाननिरोधा।७३ बंधवह छविच्छेयं अइभारं भत्तपाणवोच्छेयं / कोहाइदूसियमणो गोमणुयाइण णो कुणइ॥ बंधवहछविच्छेद अइभारे भत्तपाणवुच्छेए। कोहाइदूसियमणो गो मणुयाईण नो कुजा / / 75 प्रथम अणुव्रत का धारक श्रावक क्रोधादि कषायों से मन को कलुषित कर गाय आदि पशुओं और मनुष्यों आदि का बन्ध,वध छविच्छेद, अतिभार और भक्त - पान विच्छेद न करे। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / | चतुर्थ अध्याय 258)