________________ आचार्य सिद्धसेन भी प्रमाण की प्रामाणिकता सिद्ध करते हुए कहते है / परशास्त्रों में जो कुछ भी थोडे सुन्दर, सुवचन, सुयुक्तियाँ चमकती है, वे मूलतः तुम्हारी ही है। अतः जिनेश्वर वाणी की सुक्तियाँ और सुयुक्तियाँ समुद्र तुल्य है और प्रमाणरुप है। सुनिश्चितं नः परतन्त्रयुक्तिषु स्फुरन्ति या काश्चन सुक्ति संपदः।। तवैव ताः पूर्वमहार्णवोत्थिता, जगत्प्रमाणं जिन वाक्य विग्रुषः / / 123 प्रमाण को अधिकारभूत मानकर धर्मसंग्रहणी में आचार्य हरिभद्र ने एक अद्भुत उल्लेख किया है - जीव में सभी प्रकार का ज्ञान जानने का सामर्थ्य नहीं है तो विज्ञजन प्रमाण को प्राथमिकता देते हुए अप्रमाणिक बात को स्वीकार नहीं करते है। जीवस्सवि सव्वेसुं हंत विसेसेसु अत्थि सामत्थं। अहिगमणम्मि पमाणं किमेत्थ णणु णेयभावो नु / / 124 जीव का सभी विषयों में ज्ञान का सामर्थ्य होता है, ऐसा कहते है पर इस कथन में प्रमाण क्या ? प्रमाण नहीं मिलने पर अस्वीकार्य विषय बनता है, अतः प्रमाण से ही ज्ञेय, अभिधेय अधिकृत किया गया है। जिसमें इतरेतराश्रय दोष नहीं आता हो वह प्रमाण स्वतः ही सिद्ध है। इसी बात को धर्मसंग्रहणीकार हरिभद्र कहते है - ___ सर्वज्ञ आगम के अर्थ के वक्ता है न कि केवलसूत्र के अतः वे स्वयं आगम में फलभूत है / इसलिए आगम स्वयं प्रमाणभूत है। इसमें इतरेतराश्रय दोष की संभावना ही नहीं है। क्योंकि प्रमाण सर्व दोष मुक्त होता है। 125 भगवान उमास्वाति ने प्रमाणनयैरधिगम'१२६ सूत्र रूप में यह बात कही है। इस सूत्र की टीका में आचार्य हरिभद्र ने 'प्रमीयते अनेन तत्त्वं इति प्रमाणं, करणार्थाभिधानः प्रमाण शब्द इति / 127 जिसके द्वारा ज्ञान का अवबोध होता है वह प्रमाण कहलाता है। करण के अर्थ का नाम ही प्रमाण है। इस प्रकार यथार्थवस्तु का ज्ञान प्रमाण के बिना शक्य नहीं है। तथा प्रमाण युक्त वस्तु ही विबुध जन स्वीकार करते है। अप्रमाणित पदार्थों पर अनेक तर्क-वितर्क संदेह आदि होते रहते है। अतः शास्त्रों में ज्ञान के साथ प्रमाण को महत्त्व प्रदान किया है। ज्ञान का वैशिष्ट्य - अज्ञान का पूर्ण अभाव ही वस्तुतः ज्ञान है। जैसे कि अंधकार का सम्पूर्ण अभाव ही परमार्थतः प्रकाश है। क्षण-क्षण क्षीयमाण एवं प्रतिपल परिवर्तित होनेवाले इस संसार में प्रत्येक प्राणी दुःख और अशांति की ज्वालाओं से छटपटा रहा है। इस ज्वालाओं से बचने के लिए उसकी किसी न किसी रूप में रात दिन भाग दौड़ चल रही है। परन्तु अजस्र सुख की अनंतधारा से वंह प्रतिपल दूर होता जा रहा है। इसका मुख्य कारण यदि अन्वेषण करते है तो ख्याल आता है मनुष्य का अज्ञान ही उसे अनंत सुख से पराङ्मुख बना रहा है। तथा विमुक्ति के सोपानों पर कदम बढ़ाने से रोके हुए है। उसका अपना अज्ञान ही उसे संसार चक्र में भटकाने का काम कर रहा है। मनुष्य का बिगाड़ और बनाव उसके स्वयं के हाथ में है। वह चाहे तो अपने जीवन का | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIII IA तृतीय अध्याय | 233