________________ लेकिन समवायांग वृत्ति में अभयदेव सूरि ने यह बताया है - आचारांग स्थापना की दृष्टि से प्रथम है लेकिन रचना की दृष्टि से १२वां अंग है। जिन आचारों का उपदेश स्वयं तीर्थंकरों ने दिया है उसका पालन उन्होंने स्वयं ने भी किया है। उनका उनुसरण करके ही आचार्य हरिभद्रसूरि ने आचार संबंधी, दशवैकालिक टीका, पिंडनियुक्ति, श्रावक धर्मविधि प्रकरण, पंचवस्तुक, पञ्चाशक आदि अनेक ग्रंथों की रचना की है। पूर्वाचार्यों से चली आ रही यह आचार परंपरा आज भी अखंडित अजस्र रूप से चल रही है और उसी आचारों की मर्यादा में रहकर आत्मा ऊर्ध्वगति को प्राप्त करता है। __ प्रत्येक धर्म में जीवन को ऊंचा उठाने के लिए आचार मीमांसा की महत्ता बताई गई है। क्योंकि आचार विहीन व्यक्ति का कोई मूल्य नहीं होता है और मूल्य रहित जीवन जीने की कोई महत्ता नहीं रहती है। __ आचार का स्वरूप - जैन वाङ्मय में श्रावक संबंधी एवं साधु संबंधी दोनों प्रकार के आचारों का वर्णन मिलता है। श्रावक गृहस्थ धर्म का पालन करता हुआ अपनी आचार वृत्ति का पालन करे, एवं साधु संसार से विरक्त बनकर तीर्थंकर उपदिष्ट आचारों का पालन करे। जैसे कि - नवकारेण विबोहो अणुसरणं सावओ वयाइ में। जोगो चिइवंदणमो पच्चक्खाणं तु विहिपुव्वं॥ तव चेइहरगमणं सक्कारो, वंदणं गुरु सगासे। पच्चक्खाणं सवणं, जइ पुच्छा उचियकरणिज्जं // श्रावक को नमस्कार महामंत्र के साथ उठना चाहिए अर्थात् शय्या को छोड़ते हुए नमस्कार महामंत्र का स्मरण करना चाहिए। 'मैं श्रावक हूँ। ऐसा स्मरण करना चाहिए। व्रत आदि में योजित करना चाहिए। उसके विषय में मन-वचन व काया से प्रवृत्त होना चाहिए। चैत्यवंदन तथा विधि पूर्वक पच्चक्खाण ग्रहण करना चाहिए। उसके बाद पाँच प्रकार के अभिगम की आराधनापूर्वक संघ चैत्य में प्रवेश कर, पुष्पादि आभूषणों से तीर्थंकर प्रतिमा की पूजा करे, विधि पूर्वक चैत्यवंदन करे, तत्पश्चात् गुरु महाराज के पास जाकर वंदन, पुनः गुरु साक्षी से पच्चक्खाण ले, आगम के उपदेश सुने। उसके बाद साधु को शरीर और संयम की सुखशाता पूछे और बिमार-ग्लान साधु की वैयावच्च के लिए औषधादि लाकर देवे तथा प्रतिक्रमण, काउसग्ग, ध्यान आदि करे। 'पञ्चाशक सत्र' 'सावयपन्नति'१० में भी यह स्वरूप बताया गया है तथा श्रावक ज्ञानाचार आदि आचारों का भी पालन करे। उन आचारों को आगे बतायेंगे। प्रत्येक आस्तिक दर्शन का साधक अपने इष्ट देव के स्मरण पूर्वक उठता है तथा अपने इष्टदेव की पूजा एवं संध्याकर्म आदि अवश्य करता है। अतिथि सत्कार अनुकम्पादान आदि प्रवृत्ति भी करता है। आचारांग में साधु के आचारों का वर्णन इस प्रकार बताया है - सम्यक्त्व ज्ञान चारित्र तपोवीर्यात्मको जिनैः प्रोक्त। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI CA चतुर्थ अध्याय 242