Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ जैसे आचारांग चूर्णि में कहा है - ‘एत्थ य मोक्खोवाओ एत्थ य सारो पवयणस्स' - आचार ही मोक्ष उपाय का साधन है तथा यही प्रवचन का सार है।१९ अनाचार अहितकारी है ऐसा जानकर साधक आत्माओं को आचार में प्रवृत्त होना चाहिए। जैन परम्परा में जो आचार संहिता है उसके पीछे अहिंसा, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का दृष्टिकोण प्रधान है। अन्य भारतीय परम्पराओं ने भी न्यूनाधिक रूप से उसे स्वीकार किया है। जैन दर्शन में श्रमण के लिए स्नान, सचित आदि का सम्पूर्ण त्याग की बात कही है। जबकि तथागत बुद्ध ने पन्द्रह दिन से पहले जो भिक्षु स्नान करता है उसे प्रायश्चित का अधिकारी माना है। तथागत ने भिक्षुओं को सम्बोधित किया - भिक्षुओं ! नहाते हुए भिक्षु को वृक्ष से शरीर को न रगडना चाहिए, जो रगडे उसको 'दुष्कृत' की आपत्ति है।२१ विनय पिटक में जूते, खडाऊ, पादुका आदि की विधि-निषेध सम्बन्धी चर्चाएँ है। उस समय षड्वर्गीय भिक्षु जूता धारण करते थे। बुद्ध ने कहा भिक्षुओं को गाँव में जूता पहनकर प्रवेश नहीं करना चाहिए। दीर्घ निकाय में तथागत बुद्ध ने भिक्षुओं के लिए माला गंध विलेपन, उबटन तथा सजने सजाने का निषेध किया है।२२ भगवान् महावीर की भाँति तथागत बुद्ध की आचार संहिता कठोर नहीं थी। कठोरता के अभाव से स्वच्छंदता से नियमों का भंग करने लगे। तब बुद्ध ने स्नान के विषय में अनेक नियम बनाये। इस प्रकार हम देखते है कि जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों परम्पराओं ने श्रमण और संन्यासी के लिए कष्ट सहन करने का विधान एवं शरीर-परिकर्म का निषेध किया है। यह सत्य है कि ब्राह्मण परम्परा ने शरीर-शुद्धि पर बल दिया तो जैन परम्परा ने आत्म-शुद्धि पर विशेष बल दिया। आयुर्वेदिक ग्रन्थों में जो बातें स्वास्थ्य के लिए आवश्यक मानी है उन्हें शास्त्रकारों ने आनाचार कहे है, क्योंकि श्रमण शरीर से आत्म-शुद्धि पर अधिक बल देते है। स्वास्थ्य रक्षा से पहले आत्म-रक्षा आवश्यक है। ‘अप्पा हुखलु सययंरक्खियव्वो, सव्विंदिएहिं सुसमाहिएहिं' श्रमण सभी इन्द्रियों से निवृत्त आत्म-रक्षा करता है। शास्त्रकार ने आत्मरक्षा पर अधिक बल दिया है। जबकि चरक और सुश्रुत ने देह रक्षा पर बल दिया है। उनका यह स्पष्ट मानना है कि जिस प्रकार नगर रक्षक नगर का ध्यान रखता है, गाडीवाला गाडी का ध्यान रखता है, वैसे ही विज्ञ मानव शरीर का पूरा ध्यान रखें।२३ / सौवीरांजन आदि स्वास्थ्य दृष्टि से चरक संहितादि में उपयोगी बनाये। वे ही आत्मा की दृष्टि से आगम में साहित्य में श्रमणों के लिए निषिद्ध कहे है।२४ आचार के भेद 'स्थानांग' आदि में आचार के पाँच भेद बताये है। वे इस प्रकार है - पंचविहे आयरे पण्णत्ते-तं जहा णाणायारे, दंसणायारे, चरित्तायारे, तवायारे, वीरियायारे / 25 / [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIII A चतुर्थ अध्याय | 244)