Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ ज्ञान के क्रम में भी महान् रहस्य छुपा हुआ है। जैसे कि - व्यवहार में हम देखते है कि प्रत्येक शिक्षण पद्धति का क्रम होता है। उसी प्रकार यहाँ भी ज्ञान को आगे-पीछे रखने का मुख्य कारण एक-एक ज्ञान की उत्तरोत्तर प्रकृष्टता बढ़ती जाती है तथा दूसरी तरफ एक ज्ञान का दूसरे ज्ञान के साथ स्वामी, काल, स्थिति आदि साम्यता है। अगर क्रम का प्रतिबंध नहीं हो तो सभी अस्त-व्यस्त हो जायेगा। सभी ज्ञानों में प्रकृष्ट एवं सभी ज्ञानों के बाद उत्पन्न होने के कारण केवलज्ञान सबसे अन्तिम रखा गया है। तथा मुक्त अवस्था में भी इसी की प्रकृष्टता अविचल रहती है। इस प्रकार दीपक की भाँति ज्ञान भी स्वप्रकाशित होकर पर को प्रकाशित करता है और वही प्रमाण की कसौटी पर सत्य साबित हुआ है तथा ज्ञान का वैशिष्ट्य वामय में सम्यग् रूप से समुज्वल हुआ है। निष्कर्ष अनंतज्ञानी तीर्थंकर परमात्मा ने ज्ञान को प्राथमिकता दी है और इसी प्राथमिकता को प्रमाणभूत उपस्थित करने का संप्रयास आचार्य हरिभद्र का अनुपमेय है। यह ज्ञान पाँच प्रकार के आवरण के क्षयोपशम से उद्भवित होता हुआ पाँच ज्ञान के रूप में प्रमाणित बनता है। आचार्य हरिभद्र हृदय से तीर्थंकर की मान्यताओं के मनीषी है। इसीलिए अपनी मान्यताओं में तीर्थंकर प्रणित प्रमाण को प्ररूपित करते है। इनकी प्ररूपणा धर्मसंग्रहणी में श्रद्धेया बनी है। आचार्य हरिभद्र ने जीवत्व की सिद्धि में ज्ञान को प्रमुखता दी है। इसी बात को सोदाहरण प्रस्तुत की है। जैसे चन्द्र घने बादलों के बीच में भी चन्द्रिका युक्त रहता है। वैसे ही जीव भी अनेक आवरणों से आच्छादित होने पर भी उसमें ज्ञान की सत्ता अवश्य रहती है। जीवत्व के ज्ञान के आवरणों के क्षयोपशम को आचार्य हरिभद्र ने दो दृष्टिकोणों से अभिव्यक्त किया है। (1) स्वाभाविक (2) अधिगमिक। ___ कर्म जड़ात्मक है और ज्ञान चेतनात्मक है। परन्तु चेतनात्मक ज्ञान में आवरणत्व लाने का कार्य जड़ात्मक कर्म करता है। जिससे ज्ञान अपना पूर्ण प्रकाश प्रदान नहीं कर सकता। कर्म की क्षमता और ज्ञान की योग्यता इन दोनों के बीच अपने जीवत्व को जीवित रखता हुआ जीवन प्रणाली में कर्म की क्षमता का समादर करता है और ज्ञान की योग्यता का सन्मान बढ़ता है। ___ आचार्य हरिभद्र का मन्थन मतिमान् है जाड्य धर्म कर्म का है और चैतन्य धर्म जीव का है। जीव और कर्म के अनादि सम्बन्ध में ज्ञान का जो महात्म्य है उसको महत्तम रूप से मुखरित करने का प्रयास आचार्य हरिभद्र का श्रेयस्कर है श्लाघनीय रहा है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII ततीय अध्याय 1 2361