Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ उत्थान कर सकता है और चाहे तो पतन भी कर सकता है। मनुष्य के अन्तः करण में जब अज्ञान की अन्धकारमयी भीषण आँधी चलती है तब वह भ्रान्त होकर अपने सत्यपथ एवं आत्मपथ से भटक जाता है। लेकिन ज्ञानालोक की अनंत किरणें उसकी आत्मा में प्रस्फुटित होती है तो उसे निजस्वरूप का भान-ज्ञान और परिज्ञान हो जाता है। तब बाह्य परबलों से उपर उठकर आत्म-रमणता के पावन पथ पर निरन्तर आगे बढ़ता जाता है। आत्मिक विकास उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होता है। लौकिक सुखों-क्षणिक सुखों को तिलाञ्जली देकर अनंत अक्षय सुख की प्राप्ति हेतु अनवरत प्रयत्नशील रहता है। सच्चे सुख की व्याख्या में जैन दर्शनकारों ने स्पष्ट उद्घोषणा की है, कि अज्ञान निवृत्ति एवं आत्मा में विद्यमान निजानंद एवं परमानंद की अनुभूति ही सच्चे सुख की श्रेणि में है। अपनी आत्मा में ही ज्ञान की अजस्रधारा प्रवाहित है, आवश्यकता है, उसके उपर स्थित अज्ञान एवं मोह के पर्दे को हटाने की फिर वह अनंत सुख की धारा, अनंत शक्ति का लहराता हुआ सागर उमड़ने लगेगा। ज्ञान के द्वारा ही आत्मा कर्म, बन्ध, मोक्ष, हेय, उपादेय, ज्ञेय आदि के स्वरूप को जानता है। तथा उसी के अनुरूप अपनी प्रवृत्ति करता है। ज्ञान के द्वारा आत्मा में विवेक का दीप प्रज्वलित होता है जिससे उसकी प्रत्येक प्रवृत्ति पाप-समारंभ से रहित होती है। पाप भय सदैव उसे सताता है। ज्ञान के द्वारा ही प्रत्येक अनुष्ठान सदनुष्ठान बनता है। अज्ञानी को विधि विधान का ज्ञान ही नहीं होता है। और जब तक सदनुष्ठान नहीं होता वहाँ तक तीर्थ की उन्नति नहीं हो सकती है। तथा श्रेष्ठ फल की भी प्राप्ति नहीं होती। अतः कहा है-ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः। ज्ञान के साथ क्रिया होगी तभी मोक्ष की प्राप्ति संभव है। ज्ञान रहित क्रिया तो छार पर लींपण के समान है। ज्ञान के द्वारा ही जीवात्मा अनेक तत्त्वों पर चिंतन कर सकता है। ध्यान की श्रेणि में उत्तरोत्तर आगे बढ़ता जाता है और क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ होकर घाति कर्मों का क्षय करके दिव्य केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है। अज्ञानी जिन कर्मों को करोडों वर्षों में भी क्षय नहीं कर सकता / उन्हीं कर्मों को ज्ञानी ज्ञान के द्वारा ध्यान की श्रेणि में चढ़कर ध्यानाग्नि द्वारा एक श्वासोश्वास में नष्ट कर देता है। . ज्ञान यह आत्मा का निजगुण है, निजगुण प्राप्ति से बढ़कर अन्य सुख की कल्पना करना कल्पना मात्र ही है। सुख और दुःख के हेतुओं से अपने आपको परिचित करना ही ज्ञान है। ज्ञान के द्वारा तत्त्व का निर्णय हठाग्रह और कदाग्रह से मुक्त होकर करता है। तथा वह तत्त्वनिर्णय रूप ज्ञान ही वैराग्य का भी कारण बनता है। ज्ञान की अगाध चिन्तन धाराओं में डुबा हुआ आत्मा आवरणीय कर्मों का क्षयोपशम एवं क्षय करके विश्व में सम्पूर्ण पदार्थों को जानता तो है ही, लेकिन आगे बढ़कर उत्कृष्ट केवलज्ञान के द्वारा सम्पूर्ण पदार्थों को हाथ स्थित आँवले की भांति देखता है। जगत का एक भी सद् पदार्थ उसके लिए अज्ञेय, अदृश्य नहीं रहता है। आचार्य श्री हरिभद्रसूरि ने भी अपने जीवन में ज्ञान के चिन्तन से विवेक दीप को प्रज्वलित करके, ज्ञान | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIR IA तृतीय अध्याय | 234