________________ (4) यदि मनोनिमित्तज्ञान परमार्थ से प्रत्यक्ष हो, तो परोक्षरूप में माने गये मति-श्रुतज्ञान में उसका समावेश नहीं होगा, और उससे मतिज्ञान के अट्ठावीस भेद भी नहीं होंगे, क्योंकि मन संबंधी अवग्रहादि रूप छःभेद है / उनको मतिज्ञान से भिन्न मानने पडेंगे, और भिन्न मानने से पाँच ज्ञान के बदले छः ज्ञान मानने का प्रसंग आ जाता है।१०४ परोक्षज्ञान - परोक्षज्ञान के भी दो भेद इस प्रकार है - परोक्खनाणे दुविहे पन्नते, तं जहा - आभिनिबोहियनाणे चेव सुयनाणे चेव।१०५ परोक्ष ज्ञान दो प्रकार है - आभिनिबोधिक और श्रुतज्ञान / इन दोनों का वर्णन पाँच ज्ञान के वर्णन में आ गया है। 'नन्दिहारिभद्रीयवृत्ति'१०६ में इसका विवेचन आ. हरिभद्रसूरि ने किया है। ज्ञान की प्रकाशक सीमा कहाँ तक - ज्ञान आत्मा का सहज स्वभाव है। किन्तु आगन्तुक गुण नहीं है। अगर वैसा स्वभाव न हो तो चेतन और जड़ में कुछ भी भेद नहीं रहेगा, क्योंकि जड़ भी तादृश स्वभाव से शून्य है। ज्ञान आत्मगुण होने से फर्क तो पड़ सकता है, लेकिन कारण मिलने पर आत्मा में ही ज्ञान दिखाई पडता है, जड़ में नहीं, इसका मुख्य कारण यदि कोई हो तो ज्ञान आत्मा का ही स्वभाव होने से कारण सामग्री के सहकार वश आत्मा में ही दिखाई दे यह युक्तियुक्त है। हाँ ! इस स्वभाव पर आवरण लग गये है। अतः जैसे-जैसे आवरणों का विनिगमन होता जायेगा वैसे-वैसे ज्ञान प्रकट होता जायेगा। "ज्ञान आत्मा का गुण है या नहीं?" यह प्रश्न दार्शनिकों की चर्चा का विषय रहा है। __ भूतचैतन्यवादी चार्वाक् ज्ञान को पृथ्वी आदि भूतों का धर्म मानता है। वह स्थूल अथवा दृश्य भूतों का धर्म नहीं मानता परन्तु सूक्ष्म एवं अदृश्य भूतों के विलक्षण संयोग से उत्पन्न होने वाले अवस्था विशेष को ज्ञान मानता है। सांख्य के मत से चैतन्य और ज्ञान भिन्न-भिन्न है। पुरुष में स्थित चैतन्य बाह्यपदार्थों को जानता है। बाह्य पदार्थों को जानने के लिए बुद्धितत्त्व जिसे महत्तत्त्व भी कहते है और वह प्रकृति का ही परिणाम है। यह बुद्धि दर्पण के समान है। इसमें एक ओर पुरुषगत चैतन्य प्रतिफलित होता है और दूसरी ओर पदार्थों के आकार / इससे बुद्धि के माध्यम से ही पुरुष को “मैं घट को जानता हूँ" यह मिथ्याभिमान होता है। न्याय-वैशेषिक ज्ञान को आत्मा का गुण तो अवश्य मानते है लेकिन आत्मा द्रव्यपदार्थ पृथक् है तथा ज्ञान गुण पदार्थ भिन्न है। यह आत्मा का यावद् द्रव्यभावी अर्थात् जब तक आत्मा है तब तक उसमें अवश्य रहनेवाला गुण नहीं है किन्तु आत्मा, मनः संयोग, मन इन्द्रिय पदार्थ सन्निकर्ष आदि कारणों से उत्पन्न होनेवाला विशेषगुण है। जब निमित्त मिलते रहेंगे तब तक उत्पन्न होता रहेगा, न मिलने पर न रहेगा। वेदान्ती ज्ञान और चैतन्य को भिन्न-भिन्न मानकर चैतन्य का आश्रय ब्रह्म और ज्ञान का आश्रय अन्तःकरण को मानते है। शुद्ध ब्रह्म में विषयबोध का कोई अस्तित्व शेष नहीं रहता है। [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIN IA तृतीय अध्याय | 226 ||