Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ ज्ञान स्वपर प्रकाशक - ज्ञान आत्मगत धर्म है। यह चार्वाक एवं सांख्य को छोडकर सभी स्वीकारते है पर चिन्तनीय प्रश्न यह है कि ज्ञान जब आत्मा में उत्पन्न होता है तब वह दीपक की भाँति स्वपर प्रकाशी उत्पन्न होता है, या नहीं ? इस सम्बन्ध में अनेक दर्शनकारों के भिन्न-भिन्न मत है / जैसे कि मीमांसक ज्ञान को परोक्ष मानते है / उनका कथन है - ज्ञान परोक्ष ही उत्पन्न होता है, जब उसके द्वारा पदार्थों का अवबोध हो जाता है तब अनुमान से ज्ञान को जाना जाता है, क्योंकि पदार्थों की बोधरूप क्रिया करण के बिना शक्य नहीं है / अतः करणभूत ज्ञान होना चाहिए। तथा मीमांसकों का ज्ञान को परोक्ष मानने का यही कारण है कि इन्होने अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान वेद द्वारा ही माना है। धर्मादि अतीन्द्रिय पदार्थों का प्रत्यक्ष किसी व्यक्ति विशेष को नहीं हो सकता / उसका ज्ञान वेद के द्वारा ही हो सकता है। फलतः ज्ञान जब अतीन्द्रिय है, तब उसे परोक्ष होना ही चाहिए।११० इसमें प्रभाकर मिश्र के अनुयायी तो ज्ञान को स्वतः संवेद्य मानते है, किन्तु कुमारिल भट्ट के अनुयायी ज्ञान को परोक्ष ही कहते है। उनका शास्त्रवचन है कि अप्रत्यक्षा च नो बुद्धिप्रत्यक्षोऽर्थ - अपना ज्ञान स्वयं प्रत्यक्ष नहीं है, ज्ञान में प्रकाशित होनेवाला घटरुप पदार्थ प्रत्यक्ष है, उनका कहना है कि पदार्थ के साथ ज्ञान भी प्रत्यक्ष हो तो पहला प्रत्यक्षानुभव यह घड़ा है' इतना नहीं किन्तु साथ साथ यह घडा का ज्ञान' यह भी होना चाहिए लेकिन ऐसा होता नहीं है वरन् ‘यह घड़ा है इस अनुभव के बाद मुझे यह घड़ा ज्ञात हुआ ऐसा अनुभव होता है, जो कि घड़े में स्थित ज्ञातता का प्रत्यक्ष अनुभव है, 'यह घड़ा ज्ञात है अर्थात् यह घड़ा ज्ञाततावाला है, इसमें ज्ञातता प्रत्यक्ष हुई और इस ज्ञातता को देखकर आत्मा में ज्ञान हुआ है ऐसा ज्ञान अनुमान यानी परोक्ष अनुभव होता है, प्रत्यक्ष नहीं।११ 'परोक्षबुद्ध्यादिवादिनां मीमांसकादीनाम्।' 112 मीमांसक के मुख्य तीन भेद है / (1) कुमारिल भट्ट ज्ञान को नित्य परोक्ष मानता है। (2) प्रभाकर मिश्र ज्ञान को स्व व्यवसायी मानता है / (3) मुरारि मिश्र ज्ञान को अन्य अनुव्यवसायात्मक ज्ञान से वेद्य मानते है, यह न्याय और वैशेषिक मत के समान है। न्याय, वैशेषिक, मीमांसक के समान ज्ञान को परोक्ष नहीं मानते, किन्तु प्रत्यक्ष ही मानते है। परंतु वे भी ज्ञान को स्वप्रकाशक नहीं मानते। परतः प्रकाशक ही मानते है। घट का ज्ञान होता है तत्पश्चात् ‘घटज्ञानवानह' अर्थात् मुझे घट का ज्ञान हुआ ऐसा मानस प्रत्यक्ष होता है उसको वे अनुव्यवसाय ज्ञान कहते है। पहला ज्ञान व्यवसायात्मक होता। कैसी भी तीक्ष्ण खग भी स्वयं को तो कभी भी नहीं भेद सकती है। कैसी भी कुशल नर्तकी भी अपने स्कन्ध पर तो कभी भी नहीं चढ सकती। उसी प्रकार कैसा भी ज्ञान हो वह स्वयं को प्रकाशित नहीं कर सकता है। मात्र घटादि पदार्थों को ही प्रकाशित करता है। वह ज्ञान तो दूसरे ज्ञान से ही ज्ञात होता है। दूसरा ज्ञान तीसरे ज्ञान से इस प्रकार अनवस्था दोष का परिहार जब ज्ञान विषयान्तर को जानने लगता है तब इस ज्ञान की धारा रुक जाने के कारण हो जाता है। यह मत ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवाद के नाम से भी प्रसिद्ध है।११३ | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VII तृतीय अध्याय . 228