Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ ऐसा ही विवरण ‘तर्कभाषा' के संस्कृत विवेचन' में वर्णित है।११४ वेदान्ती के मत में ब्रह्म स्वप्रकाशक' है। अतः ब्रह्म का विवर्त ज्ञान स्वप्रकाशी ही होना चाहिए। . सांख्य ने पुरुष को स्वसंचेतक स्वीकार किया है। इसके मत में बुद्धि या ज्ञान प्रकृति का विकार है। इसे महत्तत्त्व कहते है। यह स्वयं अचेतन है। बुद्धि उभयमुख प्रतिबिम्बी दर्पण के समान है। इसमें एक ओर पुरुष प्रतिफलित होता है तथा दूसरी ओर पदार्थ। इस बुद्धि पुरुष के द्वारा ही बुद्धि का प्रत्यक्ष होता है स्वयं नहीं। आचार्य श्री हरिभद्रसूरि ने ललितविस्तरावृत्ति' में ज्ञान की 'स्वपरप्रकाशता' 'बुद्धाणं - बोहियाणं' पद को लेकर सिद्ध की है एवं परमात्मा को प्रत्यक्ष संवेदनवाले बताकर मीमांसक को सत्यता का भान करवाया है। आचार्य श्री हरिभद्र की यह विशिष्टता है कि अल्प अक्षरों में अधिक सार भर लेते है। वह इस प्रकार है - सम्पूर्ण जगत अज्ञान स्वरूप भाव निद्रा में अत्यंत सोया हुआ है। तब तीर्थंकर परमात्मा किसी के उपदेश से नहीं, लेकिन स्वयं प्रबल पुरुषार्थ से भावनिद्रा से मुक्त होकर जीवादि के शुद्धज्ञानवाले हुए, अज्ञान की सूचक हिंसादि पाप प्रवृत्तियों से निवृत्त हुए, क्योंकि तत्त्वबोध से सम्पन्न हुए। यह बुद्धता भी गुरु उपदेशवश नहीं, किन्तु विशिष्ट तथाभव्यत्व वश सिद्ध हुई और बुद्धता स्वयं प्रकाश ज्ञान से हुई। अन्यथा अगर ज्ञान स्वतः प्रकाश न हो अर्थात् विषय के साथ साथ अपना भी संवेदन न करा सकता हो तो वह जीव-अजीव आदि विषयों का भी संवेदन नहीं करा सकता / काष्ठादि पदार्थ में यह दिखाई पड़ता है कि वह स्वप्रकाशक करने में असमर्थ होता हुआ दूसरों को भी प्रकाश नहीं दे सकता। ज्ञान पर प्रकाशक है तो स्वप्रकाशक भी है, इससे ज्ञान की यह स्वसंवेद्यता होने पर ज्ञान को परोक्ष यानि परसंवेद्य मनिनेवालों का मत युक्तियुक्त नहीं है।११५ ज्ञाने स्वासंवेद्येऽन्यासंवेद्यत्वम् / 116 / .. कदाच मीमांसक यह कह दे कि ‘ज्ञान स्वतः प्रकाशनमान न होते हुए भी, अन्य अनुमानादि ज्ञान से तो ग्राह्य होने से पदार्थों का प्रकाशक हो सकता है तो यह बात भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्षादि कोई भी ज्ञान पर प्रकाशक होने के साथ-साथ अगर स्वप्रकाशक न हो तो उसका बोध कराने अन्य कोई ज्ञान उपायभूत नहीं हो सकता। जब कि देवदत्त अपने ज्ञान के द्वारा ही पदार्थों को क्यों जानता है। यज्ञदत्त के ज्ञान के द्वारा क्यों नहीं जानता ? या प्रत्येक व्यक्ति अपने ज्ञान के द्वारा ही अर्थ का अबबोध करते दूसरों के ज्ञान से नहीं। इसका मुख्य यदि कोई कारण हो तो वह यही है कि देवदत्त का ज्ञान स्वयं अपने को बताता है और इसलिए उससे अभिन्न देवदत्त की आत्मा को ही बोध होता है कि अमुक ज्ञान मुझे उत्पन्न हुआ। यज्ञदत्त में ज्ञान उत्पन्न हो जाय पर देवदत्त को उसका ध्यान भी नहीं होता है। अतः यज्ञदत्त के ज्ञान द्वारा देवदत्त अर्थबोध नहीं कर सकता, यदि जैसे यजदत्त का जान उत्पन्न होने पर भी देवदत्त को परोक्ष रहता है. उसी प्रकार देवदत्त को स्वय अपना ज्ञान परोक्ष हो अर्थात् उत्पन्न होने पर भी स्वयं अपना बोध न करता हो तो देवदत्त के लिए अपना ज्ञान भी यज्ञदत्त के ज्ञान के समान पराया हो गया और उससे अर्थबोध नहीं होना चाहिए। वह ज्ञान हमारे आत्मा से सम्बन्ध रखता है। इतने मात्र से हम पदार्थबोध के अधिकारी नहीं हो सकते जब तक कि वह स्वयं हमारे प्रत्यक्ष अर्थात् स्वयं | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VII A तृतीय अध्याय | 229,