Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ प्रमाणता तथा फलरूपता मानना अनेकान्त का ही समर्थन है। एक ही नाना रंगवाले चित्र पट रूप अवयवी में चित्र-विचत्र रूप मानते है / अर्थात् एकरूप वाला होने पर भी अनेक स्वरूप ऐसा चित्ररूप प्रमाणिक है, ऐसा कथन करने वाले नैयायिक और वैशेषिक भी अनेकान्त का अनादर नहीं कर सकते है। एक ईश्वर को पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, दिशा, काल, रूप अष्टमूर्ति मानना अनेकान्तवाद का ही रूप है। इसी तरह एक ही परमाणु में सामान्यरूपता तथा विशेषरूपता पायी जाती है जिससे अनेकान्तात्मकता की पूरी-पूरी सिद्धि होती है। सांख्य एक ही प्रधान को त्रिगुणात्मक मानते है / यह प्रधान परस्पर विरोधी सत्त्व, रज और तम तीनों गुणो से संयोजित किया गया है। अर्थात् त्रयात्मक है। एक प्रकृति में संसारी जीवों की अपेक्षा उन्हे सुख-दुखादि उत्पन्न करने के लिए प्रवृत्तिरूप स्वभाव तथा मुक्ति जीवों को अपेक्षा निवृत्तिरूप स्वभाव माना जाता है। इस तरह एक ही प्रधान को त्रिगुणात्मक तथा एक प्रकृति को भिन्न जीवों की अपेक्षा प्रवृत्ताप्रवृत आदि विरुद्ध धर्मोंवाली माननेवाले सांख्य अपने को अनेकान्त का विरोधी कैसे कह सकते है। उनका यह मानना ही अनेकान्त का. अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन करना है।४३६ आचार्य के समर्थन में उपरोक्त मतों का निरूपण अध्यात्म उपनिषद् 37 तथा स्याद्वाद रहस्य में भी मिलता है। आचार्यश्री बौद्धों के द्वारा मान्य दृष्टांत के द्वारा ही एक ही वस्तु में नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चारों निक्षेपों को घटित करते हुए कहते है कि “जिस तरह मोर के अण्डे में नीलादि अनेक रंग परस्पर मिश्रित होकर कंथचित् तादात्म्य रूप से रहते है / उसी तरह एक ही वस्तु में नामघट, स्थापनाघट आदि रूप नामादि चार निक्षेपों का व्यवहार हो जाता है। उसमें चारो ही धर्म परस्पर सापेक्ष भाव से मिलकर रहते है। उपनिषद् में साक्षात् अनेकान्त का स्वीकार किया गया है जैसे कि अर्थर्वशिर उपनिषद् में बताया गया है कि मैं नित्यानित्य हूँ। मैं व्यक्त-अव्यक्त बलस्वरूप हूँ। बृहद्-आरण्यक में कहा है कि उस ब्रह्म तत्त्व का ही ‘स्याद्' पद स्वरूप धन जानकर जीव पाप कर्म से लिप्त नहीं होता है। छान्दोग्योपनिषद् में वह आकाश में रमता है, वह आकाश में नहीं रमता है। ऋक् सूत्र संग्रह में उस समय वह असत् भी नहीं था और सत् भी नहीं था। सुबाल उपनिषद् में वह सत् नहीं, वह असत् नहीं, वह सदसत् नहीं है। मुण्डकोपनिषद् में श्रेष्ठ तत्त्व सदसत् है। तेजोबिन्दु उपनिषद् में आत्मा द्वैताद्वैत स्वरूप है और द्वैताद्वैत रहित है। मैत्रयी उपनिषद् में - मैं भाव और अभाव से रहित हूँ। तेज से अर्थात् प्रकाश से रहित होने पर भी प्रकाशमान् हूँ। ये सभी उपनिषद् वचन अनेकान्त के सिवाय संभवित नहीं हो सकते। भारतीय विद्वान् तथा पाश्चात्य विद्वान् ने भी अनेकान्तवाद को ससम्मान स्वीकार किया है। पंडित हंसराजजी शर्मा ने 'दर्शन और अनेकान्तवाद' नाम के पुस्तक में लिखा है कि “अनेकान्तवाद अथवा अपेक्षावाद का सिद्धान्त कुछ नवीन अथवा कल्पित सिद्धान्त नहीं किन्तु अति प्रचीन तथा पदार्थों की उनके स्वरूप के अनुरूप यथार्थ व्यवस्था करनेवाला सर्वानुभवसिद्ध सुव्यवस्थित और सुनिश्चित सिद्धांत है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIII अद्वितीय अध्याय | 182 ]