Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ शुद्धतरता, शुद्धतमता पर ही श्रुत ज्ञान की शुद्धता आदि निश्चित होती है।२४ मति विणा श्रुत नवि लहे कोई प्राणी समकितवंतनी एह निशानी। आचार्य श्री हरिभद्रसूरि ने नन्दीसूत्र हारिभद्रीय टीका' में श्रुतज्ञान की व्याख्या विशेषरूप से उल्लिखित की है। “श्रूयते इति श्रुतं - शब्द एव भावश्रुतकारणत्वात् कारणे कार्योपचारादिति भावार्थः, श्रूयते वा अनेनेति श्रुतं तदावरणकर्मक्षयोपशम इति हृदयं, श्रूयतेऽस्मादिति वा श्रुतं तदावरणक्षयोपशम एव श्रूयतेऽस्मिन्निति वा क्षयोपशमे सति श्रुतं, आत्मैव श्रुतोपयोग परिणामानन्यत्वाच्छृणोति इति श्रुतं च तद् ज्ञानं श्रुतज्ञानं / ' 25 जो सुना जाता है वह श्रुत है, वही श्रुतरूप शब्द भावश्रुत का कारण होने से कारण में कार्य का उपचार किया गया है। अथवा श्रुत ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम के द्वारा जो सुना जाता है, वह श्रुत। अथवा क्षयोपशम से जो सुना जाता है, वह श्रुत अथवा क्षयोपशम होने पर ही सुना जाता है वह श्रुत, आत्मा ही श्रुत के उपयोग में अनन्य परिणामवाली हो के सुनती है। अतः वह श्रुत ही श्रुतज्ञान है। यहाँ शब्द श्रुतज्ञान का कारण है, क्षयोपशम श्रुतज्ञान का हेतु है, और आत्मा श्रुत से कथंचित् अभिन्न है। अतः उपचार से उसको श्रुत कहा है। आ. श्री मल्लिसेनसूरिने भी धर्मसंग्रहणी की टीका में श्रुतज्ञान की व्याख्या को इसी प्रकार आलेखित की है। अर्थात् इन्होंने भी आचार्य श्री हरिभद्र का ही अनुसरण किया है।२६ आचार्य श्री हरिभद्रसूरि षोडशक प्रकरण' में श्रुतज्ञान का लक्षण बताते हुए कहते है कि शुश्रूषा' यह श्रुतज्ञान का प्रथम लक्षण है। शुश्रूषा के अभाव में जिनवचन का श्रवण मात्र पानी की सेर रहित भूमि में कूप खनन के समान है। जैसे कि - शुश्रूषा चेहाचं लिङ्गखलु वर्णयन्ति विद्वांसः। तदभावेऽपि श्रावणमसिरावनिकूपखननसमम् // 27 आचार्य श्री हरिभद्रसूरि यहाँ भी अपनी उदारता, नम्रता को प्रकट करते हुए कहते है कि धर्म श्रवण करने में अनुराग, तीव्र इच्छा यह श्रुतज्ञान का प्रथम लक्षण है। ऐसा विचक्षण पुरुष कहते है। मैं अपनी बुद्धि कल्पना से नहीं कहता हूं, क्योंकि सुनने की इच्छा न होने पर भी शिष्य को गुरु सुनाते है तो वह जलप्रवाह रहित भूमि में कूप खोदने के समान निष्फल जायेगा। जिस प्रकार जल प्रवाह यह कूप खोदने का फल है उसी प्रकार ज्ञान प्रवाह आदि धर्म श्रवण का फल है। जिस प्रकार जल प्रवाह न हो और उस भूमि में कूप खनन करने से जल का प्रवाह नहीं निकलता है उसी प्रकार धर्म श्रवण विषय इच्छा स्वरूप सेर न हो तो बोध रूपी प्रवाह शक्य नहीं है। अतः श्रवण की इच्छा रहित जीव को धर्म सुनाना वह जल प्रवाह रहित जमीन में कूप खनन के समान भ्रममूलक मात्र परिश्रम स्वरूप क्लेश को ही देनेवाला होता है। उससे कुछ लाभ नहीं मिलता है। यही कथन योगदृष्टि समुच्चय", दानविंशिका", कथारत्न कोश आदि में भी मिलता है। श्रुतज्ञान का यह प्रथम लक्षण सम्यग्दर्शन का भी प्रथम लिङ्ग है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VINIK VA तृतीय अध्याय 2061