Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ लक्षणभेदाढेतुफलभावतो भेदेन्द्रिय विभागात्। वल्काक्षर मूकेतर भेदाभेदो मतिश्रुतयोः / / 83 (1) लक्षणभेद (2) हेतुफलभाव (3) भेद (4) इन्द्रियकृत विभाग (5) वल्क (6) अक्षर (7) मूक। (1) लक्षणभेद - मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के लक्षण में भेद है। जैसे कि जो ज्ञान वस्तु को जानता है वह मतिज्ञान और जिसको जीव सुनता है वह श्रुतज्ञान / दोनों का लक्षण भिन्न-भिन्न होने से दोनों ज्ञान में भेद है। (2) हेतुफलभाव - मतिज्ञान हेतु (कारण) है, और श्रुतज्ञान फल (कार्य) है। क्योंकि यह सनातन नियम है कि मतिज्ञान के उपयोग पूर्वक ही श्रुतज्ञान का उपयोग होता है / लेकिन साथ में इतना निश्चित है कि मति-श्रुत की क्षयोपशम लब्धि एक साथ होती है उसी से वे दोनों उस रूप में एक साथ रहते है और इन दोनों का काल भी समान होता है। लेकिन उपयोग लब्धि के सामर्थ्य से वस्तु का ज्ञान प्राप्त करने का विशेष पुरुषार्थ दोनों का साथ में नहीं हो सकता है, क्योंकि यह सैद्धान्तिक नियम है कि दो उपयोग एक साथ नहीं हो सकते- जैसे कि स्तवन में कहा है - सिद्धान्तवादी संयमी रे भाषे एह विरतंत। दो उपयोग होवे नही रे एक समय मतिवंत रे प्राणी।८४ अर्थात् सिद्धान्तवादी संयमिओं का यह मत है कि एक समय में दो उपयोग संभव नहीं है। (3) भेद - मतिज्ञान के 28 भेद एवं श्रुतज्ञान के 14 अथवा 20 भेद है / इस प्रकार प्रभेदों में भेद होने से दोनों में भेद है। (4) इन्द्रियकृत विभाग - श्रोतेन्द्रिय की उपलब्धि द्वारा होनेवाला ज्ञान श्रुतज्ञान और शेष इन्द्रियों में अक्षरबोध को छोड़कर होनेवाला ज्ञान मतिज्ञान है। (5) वल्क - मतिज्ञान वृक्ष की छाल समान है, क्योंकि यह कारणरूप है और श्रुतज्ञान शुम्ब (दोरी) के समान है। क्योंकि यह मतिज्ञान का कार्यरूप है। छाल से दोरी बनती है। छाल रूप कारण होगा, तो ही दोरी बनती है। उसी प्रकार मतिज्ञान का बोध होने के बाद ही श्रुतज्ञान की परिपाटी का अनुसरण होता है। (6) अक्षर - मतिज्ञान साक्षर और अनक्षर दोनों प्रकार से होता है। उसमें अवग्रहज्ञानादि अनिर्देश्य सामान्यरूप से प्रतिभास होने से निर्विकल्प है, अनक्षर है, क्योंकि अक्षर के अभाव में शब्दार्थ की पर्यालोचना अशक्य है। अतः अक्षर और अनक्षरकृत भेद है। (7) मूक - मतिज्ञान स्व का बोध ही करवा सकता है। अथवा मतिज्ञान अपनी आत्मा को बोध कराता है। अतः वह मूक है अर्थात् मूक के समान है, जबकि श्रुतज्ञान वाचातुल्य है, क्योंकि यह स्व और पर दोनों का बोध कराने में समर्थ है। विशेषावश्यकभाष्य में विस्तार से इसका वर्णन मिलता है। पाँच प्रकार से मतिश्रुत का साधर्म्य - मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में यद्यपि उपरोक्त सात कारणों से वैधर्म्य है, फिर भी इन दोनों में स्वामी आदि पाँच कारणों से साधर्म्य है, जिसका स्वरूप आचार्य श्री हरिभद्रसूरि | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIINA तृतीय अध्याय | 220)