________________ विषयक सम्यग् ज्ञान प्रमाण की कोटि में आते है। केवलज्ञान का उपयोग नहीं करना पडता है उनको सभी साक्षात् दिखता है। यह ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् कभी भी वापिस चला नहीं जाता / यह ज्ञानवाला जीवात्मा शेष चार घाति कर्मों का क्षय करके अजर-अमर बन जाता है। अर्थात् मोक्षगति को प्राप्त करता है।५० ____ आचार्य श्री हरिभद्र रचित नन्दी हारिभद्रीय वृत्ति५१' तथा 'विशेषावश्यक-भाष्य५२' में भी केवलज्ञान का ऐसा ही विवेचन मिलता है। ज्ञान के प्रभेद - ज्ञान के प्रभेदों की चर्चाएँ हमें आगमों में तथा पूर्वाचार्य रचित ग्रन्थों में मिलती है। मत्यादिज्ञान के वैसे तो असंख्य भेद-प्रभेद हो सकते है। लेकिन यहाँ मुख्य प्रभेदों का संक्षेप से निरूपण ही उचित है। मतिज्ञान - मतिज्ञान, स्मृतिज्ञान, संज्ञाज्ञान, चिन्ताज्ञान और आभिनिबोधिक ज्ञान ये पाँचों ही समान अर्थ के द्योतक है। वस्तुतः ये भिन्न-भिन्न विषयों के प्रतिपादक है, इसी से इनके लक्षण भी भिन्न-भिन्न हमें देखने को मिलते है। तथा अनुभव, स्मरण, प्रत्यभिज्ञा तर्क और अनुमान इसके अपर नाम है। -- 1. इन्द्रिय एवं मन की अपेक्षा से किसी को जो आद्य (प्रथम) ज्ञान होता है, उसको अनुभव अथवा मतिज्ञान कहते है। 2. कालान्तर में उस जाने हुए पदार्थ को तत् - वह है, इस तरह से जो याद आता वह स्मरण अथवा स्मृतिज्ञान है। 3. अनुभव एवं स्मृति दोनों के जुड जाने पर जो ज्ञान होता है, वह संज्ञा ज्ञान अथवा प्रत्यभिज्ञा है - जैसे कि यह वही देवदत्त है। 4. साध्य और साधन के अविनाभाव रूप व्याप्ति से जो ज्ञान होता है, वह चिन्ताज्ञान अथवा तर्क होता है। जैसे कि पर्वत में अग्नि / अग्नि और धूम का अविनाभाव है। 5. साधन के द्वारा जो साध्य का ज्ञान होता है उसे अनुमान अथवा आभिनिबोधिक कहते है। जैसे कि - अग्नि का साधन धूम है। धूम को देखकर अग्नि रूप साध्य का ज्ञान होता है।५३ उपरोक्त पाँच प्रकार का ज्ञान दो प्रकार का होता है - इन्द्रिय और अनिन्द्रिय निमित्तक। इन्द्रिय निमित्तक ज्ञान पाँच प्रकार का होता है - वे इस प्रकार है। स्पर्शेन्द्रिय से स्पर्श का ज्ञान, रसनेन्द्रिय से रस का ज्ञान, घ्राणेन्द्रिय से गंध का ज्ञान, चक्षुरिन्द्रि से वर्ण का ज्ञान और श्रवणेन्द्रिय से शब्द का ज्ञान / ये पाँचों * इन्द्रिय के निमित्त से होनेवाले ज्ञान है। मन की प्रवृत्तियों अथवा विचारों को यद्वा समूहरूप ज्ञान को अनिन्द्रिय निमित्तक कहते है।५४ - ये निमित्त भेद से दो भेद हुए। अब स्वरूप अथवा विषय की अपेक्षा से भेदों का विश्लेषण करते है। ऊपर जो इन्द्रिय और अनिन्द्रिय निमित्तक मतिज्ञान बताया, उसमें प्रत्येक के चार-चार भेद है - अवग्रह, ईहा, अपाय और धारणा। अवग्रहादि में अवग्रह दो प्रकार का है। व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह। आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIII मध्याय | 211