Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ अक्खर सन्नी सम्मं, साईयं खलु सपज्जवसियं च। गमियं अंगपविठं सत्त वि ए ए सपडिवक्खा // 69 अक्षरश्रुत, संज्ञीश्रुत, सम्यक्श्रुत, सादिश्रुत, सपर्यवसितश्रुत, गमिकश्रुत, अंगप्रविष्टश्रुत - इन सातों के प्रतिपक्ष भेदों सहित (अनक्षर असंज्ञीश्रुत, मिथ्याश्रुत, अनादिश्रुत, अपर्यवसितश्रुत, अगमिकश्रुत, अंगबाह्यश्रुत) चौदह भेद श्रुतज्ञान के है। 1. अक्षरश्रुत अनुपयोग में भी जो चलित नहीं होते है वे अक्षर है। यद्यपि सभी ज्ञान अक्षर है फिर भी रूढिवश यहाँ वर्ण को अक्षर कहा गया है। 2. अनक्षर - उच्छवास, निःवास, खांसी, छींक, अनुस्वार, और चपटी आदि बजाना अनक्षर श्रुत है। 3. संज्ञी - संज्ञी जीवों का जो श्रुत, वह संज्ञिश्रुत कहलाता है। 4. असंज्ञीश्रुत - एकेन्द्रिय आदि असंज्ञि को जो अस्पष्ट, अव्यक्त ज्ञान होता है, वह असंज्ञिश्रुत है। 5. सम्यक्श्रुत - अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य यह सम्यक् श्रुत। 6. मिथ्याश्रुत - लौकिकश्रुत मिथ्याश्रुत कहलाता है। लेकिन इतना विशिष्ट है कि ग्राहक की अपेक्षा लौकिक और लोकोत्तर की भजना होती है। जैसे कि - सम्यग्दृष्टि के द्वारा ग्रहण किया हुआ भारतादि सम्यक् श्रुत कहलाता है। क्योंकि वह उसके यथावस्थित वस्तुतत्त्व के बोध से विषय-विभाग की योजना करता है। जिससे वह सम्यग्श्रुत बन जाता है। जैसा कि आचार्य श्री हेमचन्द्राचार्य ने योगशास्त्र में सम्यग् ज्ञान के विषय में कहा है - यथावस्थित तत्त्वानां सक्षेपाद्विस्तरेण वा। योऽवबोधस्तमत्राहुः, सम्यग्ज्ञानं मनीषिणः // 629 यथावस्थित अर्थात् जैसा है वैसा ही तत्त्वों का संक्षेप से अथवा विस्तार से जो बोध होता है उसे ही मनीषी सम्यग्ज्ञान कहते है। तथा मिथ्यादृष्टि के द्वारा ग्रहण किया गया आचारांगादिक श्रुत भी मिथ्याश्रुत बन जाता है। क्योंकि मिथ्यादृष्टि आचारांगादि के विषय में यथावस्थित तत्त्वबोध के अभाव में विपरीत अर्थ जोड़ देता है। जिससे वह मिथ्याश्रुत हो जाता है, मिथ्यादृष्टि के लिए। अपर्यवसित - द्रव्यास्तिकाय की अपेक्षा से, पंचास्तिकाय के समान श्रुत अनादि अनंत है। जिस प्रकार द्रव्य की अपेक्षा से पंचास्तिकाय अनादि काल से है, और अनंतकाल रहेगा, उसी प्रकार श्रुतज्ञान की अनादि काल से है और अनंतकाल तक रहेगा। सादि सपर्यवसित - पर्यायास्तिक नय के अभिप्राय से गति आदि पर्यायों से जीव के समान श्रुत भी सादि सान्त है। जैसे कि मनुष्यगति, देवगति आदि की अपेक्षा से जीव का आदि और अन्त होता है उसी श्रुतज्ञान का आदि और अन्त होता है। गमिकश्रुत - भांगा और गणित आदि जिसमें बहुत हो अथवा कारणवश से समान जिसमें बहुत हो, वह गमिकश्रुत कहलाता है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIA तृतीय अध्याय | 214