Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ से जानना / उसे ही मनःपर्यवज्ञान कहते है। अथवा मन के पर्याय उसका ज्ञान, वह मनः पर्यायज्ञान है। जैसे कि 'इस मनुष्य ने इस वस्तु का चिन्तन इस प्रकार किया। इस प्रकार का ज्ञान मनःपर्यवज्ञान है। अप्रमत्त साधु बिना यह किसी को नहीं होता। तथा जिस आत्मा ने चरम मनुष्य भव के पूर्व तीसरे भव में तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया होता है, वही आत्मा अपने चरम मनुष्य भव में आत्मा के उत्कृष्ट विशुद्धि के कारण दीक्षा ग्रहण करते ही यह ज्ञान पा लेते है। इसीलिए तीर्थंकर परमात्मा जन्म से ही तीन ज्ञानयुक्त होते है, और प्रव्रज्या ग्रहण करने के साथ ही इस चतुर्थ ज्ञान के धनी बन जाते है। तीर्थंकर जब व्रत धरे निश्चय हुवे ए नाण।४८ इस ज्ञान के पश्चात् निश्चित ही आत्मा को लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान होता है। केवलज्ञान - द्रव्य इन्द्रिय और द्रव्यमन की अपेक्षा बिना ही आत्मा के द्वारा रूपी और अरूपी द्रव्यों को सम्पूर्णतया जानना ही केवलज्ञान है।४९ / / इस अद्भुत, अलौकिक ज्ञान में क्षयोपशम काम नहीं आता है, लेकिन क्षयशक्ति ही कार्य करती है। आत्मा की अनन्त शक्ति को आच्छादित करनेवाले ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय- इन चारों घाति कर्मों का सम्पूर्ण, समूल क्षय होता है, तब केवलज्ञान की प्राप्ति होती है और ऐसी विभूति ही सर्वज्ञ' नाम से जानी जाती है। केवलज्ञान की विशिष्टताएँ :1. केवलज्ञान होने के बाद उसके साथ अन्य चारों क्षायोपशमिक ज्ञान की कोई भी आवश्यकता नहीं रहती। 2. यह परिपूर्ण रूप से एक ही साथ उत्पन्न होता है, पहले थोडा फिर अधिक, ऐसा केवलज्ञान में नहीं होता है। 3. इसमें संसार के सम्पूर्ण ज्ञेय को जानने की शक्ति होती है। 4. इसकी तुलना में दूसरा कोई ज्ञान नहीं है। 5. स्वयं प्रकाशी होने से दूसरे ज्ञान की मदद की सर्वथा आवश्यकता नहीं रहती। 6. विशुद्ध कर्मों की सत्ता क्षय हो जाने से अब तक एक भी परमाणु अवरोधक नहीं बन सकता। 7. सूक्ष्म तथा स्थूल सभी पदार्थों को जानने की शक्तिवाला है। 8. लोकाकाश और अलोकाकाश को यथार्थरूप से जानता है। 9. ज्ञेय अनंत होने से केवलज्ञान के पर्याय भी अनंत होते है। 10. अनन्त भूत-भविष्य और वर्तमान काल में रहे हुए समस्त 'सत्' पदार्थों का उनके पर्यायों सह ज्ञान होता है। इन सभी कारणों के कारण ही 'स्व पर व्यवसायिज्ञानं प्रमाणम्' तथा 'यथार्थ ज्ञानं प्रमाणम्' आदि | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIINIK VIIIIINA तृतीय अध्याय | 210 )