Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ इयञ्च शुश्रूषा सम्यग्दर्शनस्याप्याद्यं लिङ्गम्।३१ आचार्य हरिभद्रसूरि ने भी योगबिन्दुः२, पञ्चाशक२३, सम्बोध प्रकरण३४, श्रावकप्रतिमा-विंशिकाय आदि में कहा है। शुश्रूषा के बिना श्रवण-ग्रहण-धारणा आदि की सिद्धि संभव नहीं है। शुश्रूषा आदि से श्रुत आदि ज्ञान उत्पन्न होते है। वह इस प्रकार है - उह, अपोह से रहित जो ज्ञान होता है वह प्रथम श्रुतज्ञान, उहापोह से युक्त ज्ञान चिन्तामय दूसरा ज्ञान तथा कल्याणकारी फलवाला तृतीय भावनाज्ञान है। तथा इन तीन ज्ञानों में जिसका समावेश न हो वह मिथ्याज्ञान कहलाता है। श्रुतज्ञान की तीन विशेषता आचार्य हरिभद्रसूरि ने 'षोडशक' में बतायी है। वह इस प्रकार हैवाक्यार्थमात्रविषयं कोष्ठगतबीजसन्निभं ज्ञानम्। श्रुतमयमिह विज्ञेयं, मिथ्याभिनिवेशरहितमलम्॥२६ जिस विषय का प्रतिपादन जिस वाक्य द्वारा हो रहा हो उसी विषय का प्रतिपादन करनेवाले सभी ही शास्त्र वचन परस्पर एकवाक्यता आपन्न कहलाते है। वैसे वचनों का जो विषय - अर्थ होता है उससे अविरुद्ध ऐसे अर्थ के प्रतिपादक ही ऐसे शास्त्रवचन का अर्थमात्र का जो ज्ञान होता है जिसमें नय-निक्षेप-प्रमाण-सप्तभंगी आदि अपेक्षा का अवगाहन न होता हो वह श्रुतमय कहलाता है। अर्थात् सभी शास्त्रों, वचनों के साथ जिसका विरोध न हो ऐसे निश्चित अर्थ का प्रतिपादन करनेवाले कुछ शास्त्र वाक्य का यथाश्रुत अर्थ का ज्ञान, जैसे कि - 'सव्वे जीवा न हतव्वा' किसी जीव को नहीं मारना चाहिए ऐसा ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है। इसमें नय-प्रमाण आदि का अवगाहन नहीं होता है। इससे अन्य ज्ञान में संशयादि स्वरूप होने की संभावना होने से अज्ञान स्वरूप होता है। अतः उसका ज्ञान में समावेश नहीं हो सकता है। जैसे कि कोई नयविषयक हो, कोई सप्तभंगी विषयक हो, कोई स्वदर्शनपरक वचन हो, कोई परदर्शनप्रतिपादन परक हो कोई काल-ज्योतिषविषयक हो, कोई कर्म विषयक तो कोई मंत्र विषयक ऐसे भिन्न-भिन्न विषयवाले शास्त्रों के वचनों के कोई-कोई पदमात्र का आग्रह करके उस पदार्थ का ज्ञान होता है वह संशय-भ्रम स्वरूप होने के कारण अज्ञान स्वरूप ही है। अतः श्रुतज्ञान में इस वाक्य के द्वारा उसका व्यवच्छेद होता है। दूसरी महत्त्व की बात यह है कि श्रुतज्ञान यह भविष्य में होनेवाले चिन्ताज्ञान का कारण है। अतः जब तक चिंताज्ञान प्रगट न हो वहाँ तक श्रुतज्ञान रहना अत्यंत आवश्यक है। जिस प्रकार भविष्य में यदि वृक्षारोपण तथा पाक के लिए उसका बीज जरुरी है, कृषक नया पाक लेने के लिए बीज को कोठार, गोदाम में सुरक्षित रखता है। वह नाश न हो जाय, उसका पूर्ण ध्यान रखता है। नये मौसम में उस बीज में से पाक प्राप्त कर सके उसी प्रकार श्रुतज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् उहापोह, नय-प्रमाण आदि की पर्यालोचना से चिंताज्ञान जब तक प्रगट न हो तब तक श्रुतज्ञान स्थिर रहना चाहिये। श्रुतज्ञान चिंताज्ञान को उत्पन्न न कर सके उस श्रुतज्ञान का क्या महत्त्व ? अतः कोठार में सुरक्षित बीज की भाँति श्रुतज्ञान भी स्थिर होना ही चाहिये। और वह गुरु भक्ति, विधिपरायणता, यथाशक्ति पालन, बहुमानगर्भित श्रवण आदि शुश्रूषा द्वारा | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VII तृतीय अध्याय | 207 ]