Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ क्षयोपशम आदि पाँच प्रकार का ही होता है। तथा कार्यभेद हमेशा कारणभेद पर ही आधारित है। - आ. श्री हरिभद्रसूरि ने इस गाथा में ज्ञान और ज्ञान के हेतुओं में कार्य-कारण भाव बताकर अपनी दार्शनिकता को उजागर की है। दार्शनिकता उनके ग्रन्थों में स्थान-स्थान पर हमें देखने को मिलती है। चाहे वह दर्शन सम्बन्धी, ज्ञान सम्बन्धी या कर्म सम्बन्धी विषय क्यों न हो ! पाँचों ज्ञानों का विवेचन इस प्रकार मिलता है - (1) आभिनिबोधिक - द्रव्य इन्द्रिय और द्रव्यमन के निमित्त से नियतरूप से रूपी और अरूपी द्रव्यों को जानना आभिनिबोधिक ज्ञान है। . इन्द्रियों के क्षयोपशम से उत्पन्न शक्ति जहाँ तक पहुँचती है ऐसे नियत स्थान में रहे हुए पदार्थों का जो ज्ञान वह आभिनिबोधिक ज्ञान है। ___आचार्य श्री मल्लिसेनसूरि रचित धर्मसंग्रहणी में आभिनिबोधिक ज्ञान अर्थात् अर्थाभिमुखो नियतो बोधोऽभिनिबोधः अभिनिबोध एवाभिनिबोधिकम् / 21 / / अर्थ के सन्मुख जो बोध वह अभिनिबोध - इसी अभिनिबोध ज्ञान के आवरक कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न ज्ञान को आभिनिबोधिक ज्ञान कहते है। इसी को विशेष स्पष्ट आचार्य श्री हरिभद्रसूरि ने नन्दीसूत्रवृत्ति में किया है - अर्थ के अभिमुख जो निश्चित ज्ञान वह अभिनिबोध / क्षयोपशम से रहित जो अनिश्चयात्मक ज्ञान होता है वह अभिनिबोध नहीं हो सकता है। इसीलिए निश्चित ऐसा विशेषण दिया है। यदि अर्थाभिमुख ऐसा विशेषण नहीं दिया होता तो . तैमिरिकादि दोषवाले को एक चन्द्र होने पर भी दो चन्द्र का निश्चित बोध होता है। परंतु वह ज्ञान अर्थ के अभिमुख नहीं होने से सत्यज्ञान नहीं है। इन दोनों को निरस्त करने के लिए तीर्थंकर गणधरों ने अर्थाभिमुख और नियत ऐसे बोध को अभिनिबोध कहा और वही आभिनिबोधिक ज्ञान है, अर्थात् अर्थ के अभिमुख निश्चय रूप से आत्मा जिसे जाने, वह अवग्रहादिरुप ज्ञान अभिनिबोध अथवा उस अभिनिबोध में कारणभूत उसको आवृत करनेवाले कर्मों का क्षयोपशम, जिससे आत्मा घट-पटादि को जानता है अथवा उन आवरणीय कर्मों के क्षयोपशम होने पर आत्मा जानता है, ये तीनों व्युत्पत्ति से उसके आवरण का क्षयोपशम वह अभिनिबोध इस व्याख्या से आत्मा यही आभिनिबोधिक है क्योंकि ज्ञान और ज्ञानी कथंचित् अभिन्न है अर्थात् ज्ञानी के बिना ज्ञान गुण नहीं रह सकता है।२२ श्रुतज्ञान - द्रव्य इन्द्रिय और द्रव्यमन के निमित्त से शब्द या अर्थ को मतिज्ञान से ग्रहण कर स्मरण कर उसमें जो वाच्य-वाचक सम्बन्ध की पर्यालोचना पूर्वक शब्दोल्लेख सहित शब्द और अर्थ जानना ही श्रुतज्ञान जो सुना जाता है अथवा जिसके द्वारा सुना जाता है, उसे श्रुतज्ञान कहते है। इसमें भी इन्द्रिय और मन ही काम करते है। पत्थर की गाय से भी नैसर्गिक (स्वाभाविक) गाय का ज्ञान होता है, उसी प्रकार शब्द जड होने पर भी जितने प्रमाण में धारणा शक्ति का संचय किया होगा उतना ही श्रुतज्ञान होगा। मतिज्ञान की शुद्धता, | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII य अध्याय | 205