Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ कथन अनेकान्तवाद को प्रत्यक्ष रूप से प्रकट करता है। नान्वयः स हि भेदित्वान्न भेदोऽन्वयवृत्तितः। मृद्भेदद्वयसंसर्गवृत्ति जात्यन्तरं घटः।। मिट्टी के घड़े में न तो मिट्टी और घड़े का सर्वथा अभेद ही माना जा सकता और न भेद ही। मिट्टीरूप में सर्वथा अभेद नहीं कह सकते, क्योंकि वह मिट्टी दूसरी थी यह दूसरी है, अवस्था भेद तो है ही। उनमें सर्वथा भेद भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि मिट्टीरूप से अन्वय पाया जाता है। पिण्ड भी मिट्टी का ही था और घड़ा भी मिट्टी का ही है। तात्पर्य यह है कि घड़ा सर्वथा अभेद और सर्वथा भेद रूप दो जातियों से अतिरिक्त एक कथंचित् भेदाभेद रूप तीसरी जाति का ही है। न सर्वथा उसी अवस्थावाली मिट्टी रूप है और न मिट्टी से सोने का बन गया है, किन्तु द्रव्यरूप से उस मिट्टी का उसमें अन्वय है तथा पर्यायरूप से भेद है। यह निरूपण आ. हरिभद्र ने अनेकान्त प्रवेश एवं अनेकान्तजयपताका 45 में किया है। इस प्रकार अनेकान्त' शब्द वस्तु के अनन्त धर्म का उद्घोष करता है, किन्तु वस्तु के अनेक धर्मों को एक ही शब्द से एक समय में युगपद् नहीं कहा जा सकता। इसीलिए जैनदर्शन में स्याद्वाद का विकास हुआ। स्याद्वाद कथन करने की एक निर्दोष भाषा पद्धति है। यह वस्तु के अनेक धर्मता का अपेक्षाभेद से कथन करती है। स्याद् शब्द अव्यय जो अनेकान्त का द्योतक है अतः स्याद्वाद को अनेकान्त भी कहा जाता है। .. ‘स्यात्' शब्द यह निश्चितरूप से बताता है कि वस्तु केवल इसी धर्मवाली ही नहीं है। उसमें उसके अतिरिक्त धर्म भी विद्यमान है। अर्थात् अविवक्षित शेष धर्मों का प्रतिनिधित्व स्याद् शब्द करता है। स्याद् का अर्थ शब्द या सम्भावना नहीं किन्तु निश्चय है। अर्थात् ‘घड़ा रूपवान् है' इस वाक्य में रूप के अस्तित्व की सूचना तो रूपवान् शब्द दे ही रहा है पर उन उपेक्षित शेष धर्मों के अस्तित्व की सूचना ‘स्यात्' शब्द से होती है। 'स्यात्' 'रूपवान' को पूरी वस्तु पर अधिकार जमाने से रोकता है और कह देता है कि वस्तु विराट है उसमें एक रूप ही नहीं है बल्कि अनन्त गुण धर्म स्थित है। स्याद् शब्द एक सजग प्रहरी है जो उच्चरित धर्म को इधर-उधर नहीं होने देता। वह उन अविवक्षित धर्मों का संरक्षक है। ‘स्याद्' पद एक स्वतन्त्र पद है जो वस्तु के शेषांश का प्रतिनिधित्व करता है। उसे डर है कि अस्ति नाम के धर्म को जिस शब्द से उच्चरित होने के कारण प्रमुखता मिली है वह पूरी वस्तु को हड़प न जाय, अपने अन्य नास्ति आदि सहयोगियों के स्थान को समाप्त न कर जाय इसलिए वह प्रति वाक्य में चेतावनी देता रहता है - हे अस्ति ! भाई तुम एक अंश हो, तुम अपने अन्य भाइयों के अधिकार को लेने की चेष्टा मत करना। इस भय का कारण है - नित्य ही है, अनित्य ही है। आदि अंशवाक्यों ने पूर्ण अधिकार वस्तु पर जमा कर अनधिकार चेष्टा की और जगत में अनेक तरह से वितण्डा और संघर्ष उत्पन्न किये। इसके फल स्वरूप पदार्थ के साथ तो अन्याय हुआ ही है, पर इस वाद-विवाद के अनेक मतवादों की सृष्टि करके अहंकार, हिंसा, संघर्ष, अनुदारता, परमता, सहिष्णुता आदि से विश्व को अशान्त और आकुलतामय बना दिया है। ‘स्याद्' शब्द | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIII द्वितीय अध्याय | 1841